________________
जैन
- पुरातत्त्व
मूर्तिका उल्लेख आता है । श्रमण भगवान् महावीर के समय भी चंदनका प्रयोग मूर्तिनिर्माण में हुआ था । मगधके पाल राजाश्रोंने भी काष्ठप्रतिमाओं का सृजन किया था । श्रतः परम्परा प्राचीन है । उत्तरकालीन जैनोंने शायद इसका निर्माण इसलिए रोक दिया होगा कि सापेक्षतः इसकी आयु कम है । प्रतिदिन प्रक्षालसे वह शीघ्र ही जर्जर हो जाता है ।
७५
1
कलकत्ता विश्वविद्यालय के आशुतोष संग्रहालय में एक जैनाश्रित मूर्तिकलाकी जिनप्रतिमा है । इसकी प्राप्ति बिहार के विष्णुपुर के तालाब से हुई थी । मेरै मित्र श्री डी० पी० घोषने इसका काल दो हज़ार वर्ष पूर्व का स्थिर किया है । प्रतिमाको देखनेसे ज्ञात होता है कि वह पर्याप्त समय जलमग्न रही होगी । क्योंकि उसमें सिकुड़न बहुत है । रेखाएँ भी कम नहीं हैं | डा० विलियम नार्मन ब्राउनने मुझे एक भेंट में बताया था कि अमेरिका में भी कुछ काष्ठोत्कीर्ण जिनमूर्तियाँ हैं, जिनका समय श्राजसे १५०० वर्ष पूर्वका है ।
विवेकविलास में प्रतिमा निर्माण काम में आनेवाले काष्ठकी परीक्षाका उल्लेख इसप्रकार आया है
"निर्मलेनारनालेन पिष्टया श्रीफलत्वचा |
विलिप्तेश्मनि काष्ठे वा प्रकटं मण्डलं भवेत् ॥”
परीक्षा के अंगों पर प्रकाश डालनेवाली और भी सूचनाएँ इसीमें है । प्रतिमा निर्माण में इन काष्ठोंकी परिगणना है ---
चंदन, श्रीपर्णी, बेलवृक्ष, कदंब, रक्तचंदन, पियाल, ऊमर, शीशम' ।
'कार्यं दारुमयं चैत्ये श्रीपर्णी चन्दनेन वा । बिल्वेन वा कदम्बेन रक्तचंदनदारुणा ॥ पियालोदुम्बराभ्यां वा क्वचिच्छिंशिमयापि वा । अन्यदारूणि सर्वाणि बिम्बकार्ये विवर्जयेत् ॥
Aho! Shrutgyanam