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जैन-पुरातत्त्व सं० १०६३', नाहर संग्रहमें सं० १०७७ की, कलकत्ता तूलापट्टी स्थित खरतरगच्छीय बृहत्मंदिर स्थित वि० सं० १०८३, सं० १०८४की भीमपल्ली रामसेन स्थित मूर्ति, सं० १०८६की जैसलमेरीय प्रतिमा, श्रोसीया ( राजस्थान ) को सं० १०८८ की, और गौडीपार्श्वनाथ मंदिर ( बम्बई ) की वि० सं० १०६०की मूर्तियोंके अतिरिक्त अभी भी अनेक मूर्तियाँ अन्वेषणकी प्रतीक्षामें है। उदाहरणार्थ बीकानेर के चिन्तामणि 'भारतनां जैनतीर्थो अने तेमनुं शिल्प स्थापत्य प्लेट १७ । जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ३ । जैन-धातु प्रतिमा लेख, पृ० १ ।
जैनयुग व० ५ अं० १-३, “जैनतीर्थ भीमपल्लो और रामसेन" शीर्षक निबंध । , "जैनलेखसंग्रह, भा० १, ले० ७६२, पृ० १६५।
श्री साराभाई नवाबने अपने "भारत ना जैनतीर्थो अने तेमनुं शिल्प स्थापत्य" नामक ग्रन्थमें (परिचय पृ० ७) सूचित करते हैं कि "इस प्रतिमा मस्तकके पीछेकी जटा गरदन तक उतर आई है, वैसी अन्यत्र नहीं मिलती" । पर मुझे ६ शतीको धातुमूर्ति, जो सिरपुरसे प्राप्त हुई है, उसमें इस प्रतिमाके समान ही जटा है । मैंने ही साराभाईका ध्यान इस
ओर, आजसे १२ वर्ष पूर्व आकृष्ट किया था। __ संवत् १६३३में तुरसमखानने सीरोही लूटी। वहींसे १०५० मूर्तियाँ सम्राट अकबरके पास फतहपुर भेज दीं। सम्राट्ने विवेकसे काम लिया । अतः उन्हें गलाकर स्वर्ण न निकाला गया। बादशाहने अपने अधिकारियोको कड़ा आदेश दे रखा था कि उनकी बिना आज्ञाके ये किसीको न दी जायँ। मंत्रीश्वर कर्मचंद्रने बादशाहको प्रसन्न कर यह कला सम्पत्ति प्राप्त की, मंत्रीश्वरने अपने चातुर्यसे भारतीय मूर्तिकलाकी मूल्यवान् सामग्री बचा ली। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि, पृ० २१७-१८
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