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जैन - पुरातत्व
इस प्रकारके मूर्त्ति लेख कम मिलते हैं । जिनमें मूर्त्ति - निर्माणका कारण व लाभ बताये गये हों, और स्थपति का भी नामोल्लेख हो । धातु- प्रतिमाएँ, आठवीं शतीकी सूचित मंदिरमें हैं ।
वांकानेर (सौराष्ट्र) व अहमदाबाद के मंदिरोंमें सातवीं आठवीं शताब्दीकी धातुमूर्त्तियाँ सुरक्षित हैं । इसी कालकी जैनघातु-मूर्त्तियाँ दक्षिण भारत में भी पाई जाती हैं ।
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जोधपुर के निकट गाँधारणी तीर्थमें भ० ऋषभदेव स्वामीकी धातुमूर्त्ति ६३७ की है, लेख इस प्रकार है
१ ॐ ॥ नवसु शतेष्वब्दानां । सप्ततुं (त्रि) शदधिकेश्वतीतेषु । श्रीवच्छलांगलीभ्यां
परमभक्त्या ॥ नाभयेजिनस्यैषा ॥ प्रतिमाऽषाडार्द्धमासनिष्पन्ना श्रीम
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३ तारेणकलिता । मोक्षार्थं कारिता ताभ्यां ज्येष्ठार्यपदं प्राप्तौ द्वावपि
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की मूर्ति हो है । ( ऐसा ) जानकर. . यशोदेव... आदिने यह जिनमूर्तियुगल बनवाया । शताधिक भव परम्परयोपार्जित कठिन कर्मरज ....... ( नाशार्थ एवं ) सम्यग्दर्शन, विमल ज्ञान और चारित्रके लाभार्थ, वि० सं० ७४४ ( में यह युगल मूर्त्तिकी प्रतिष्ठा हुई) साक्षात्ब्रह्मा समान सर्व प्रकार के रूप ( मूर्तियाँ) निर्माता शिल्पी शिवनागने इसे
बनाया ||
श्री जैन सत्यप्रकाश वर्ष ७ अं० १-२-३, पृ० २१७ । 10 बाबू पूर्णचन्द्र नाहरके संग्रहमें ८वीं शतीकी एक मूर्ति है जिसमें कनाडी लेख है । मूर्त्ति अत्यन्त सुन्दर है ।
'स्व०
" रूपम् " १९२४, जनवरी, पृ० ४८ ।
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