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जैन-पुरातत्व वैसा रहा, आदि महत्त्वपूर्ण विषयपर, प्राप्त मूर्तिसे प्रकाश पड़ेगा। जीवन्त स्वामीकी मान्यताका सांस्कृतिक रूप कैसा था ? इसका पता वसुदेव 'हिंडी · बृहत्कल्पभाष्य-निशीथचूर्णि'3 और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि ग्रन्थोंके परिशीलनसे लगता है। यों तो कतिपय धातु-मृतियाँ भी इस नामकी मिलती हैं, पर उनमें “भावयति'का अंकन न होकर, वीतरागावस्थाका सूचन करती हैं । हाँ, अंकोटसे प्राप्त प्रतिमा इस विषयपर प्रामाणिक प्रकाश डालती है । प्रतिमा दुर्भाग्यसे खंडित है । दाहिना हाथ टूट गया है । पादपीट युक्त मूर्तिको ऊँचाई १५३ इंच है । चौड़ाई ४६ इंच है। तीन टुकड़ोंमें विभक्त निम्न लेख उत्कीर्णित है
", ओं देवधर्मोगं जिवंतसामि २ प्रतिमा चन्द्र कुलिकस्य ३ नागीस्वरी (१ नागीश्वरी) श्राविकस्याः (कायाः)
अर्थात्-ओं यह देवनिमित्त दान है, जीवन्तसामी प्रतिमाका, चन्द्रकुलकी नागीश्वरी नामक श्राविकाकी अोरसे" __लेखकी मूललिपिमें 'च'के अागे स्थान छूटा हुआ है। सम्भव है 'न्' छूट गया हो । प्रकाशित लिपिकी तुलना, ई० स० ५२४-६००के बीचके वल्लभीके मैत्रकोंकी दानपत्रों की लिपिसे, की जा सकती है।
१भाग १, पृ. ६१। भाग ३, पृ० ७७६।
ताडपत्रीय पोथी जो प्राचार्य श्री जिनकृष्णचंद्रसूरि-संग्रह (सूरत)में सुरक्षित है। १२वीं शताब्दीकी यह प्रति सूरतके एक सज्जनसे वि० सं० १६९३में पूज्य गुरुवर्य श्री उपाध्याय मुनि सुखसागरजी महाराजको प्राप्त हुई थी। पाठ इस प्रकार है
"अण्णया आयरिया वतिदिशं जियपडिमं वंदिया गता" । जैन-सत्यप्रकाश वर्ष १७, सं० ५-६, पृ० १८-१०९ ।
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