________________
६८
खण्डहरोंका वैभव शब्द अंकित' हैं । श्रोशाहका ध्यान है कि यह जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, 'विशेषावश्यकभाष्य' के रचयिता ही हैं। इसके समर्थनमें वे उपयुक्त लेखकी लिपिको रखते है-जिसका काल ईस्वी पाँच सौ पचाससे छह सौ पड़ता है । वलभीके मैत्रकोंके ताम्र-पत्रोंकी लिपिसे यह लिपि मेल रखती
__सापेक्षत: यह मूर्ति, कलाकी दृष्टि से भी, प्राप्त मूर्तियोंमें पुरातन अँचती है । प्रकाशित चित्रोंपरसे मूर्तियोंका सौन्दर्य देखा जा सकता है । मध्य भागमें भगवान् युगादिदेवकी प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रामें है । तनपर वस्त्र स्पष्ट है । चरण के निकट उभय मृग, साश्चर्य मुख-मुद्रामें ऊपरकी अोर झाँक रहें हैं । बाई अोर कुबेर (द्विहस्त) और दाई ओर अम्बिका है। इसकी रचनाशैली स्वतंत्र है । पृष्ठ भागमें लेख उत्कीर्णित है । इसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। श्रीशाह सूचित करते हैं कि मूर्तिके पास २ छिद्र हैं, उसमें २३ तीर्थंकरोंकी, प्रभावकी युक्त पट्टिका थी, अब भी दुरवस्था में हैं । मूर्ति ‘सोष्णीष' है । जीवन्तस्वामी
उपयुक्त प्रतिमाकी सामान्य चर्चा तो इस निबंध में हो चुकी है, परन्तु इस भाववाली प्रतिमाका सक्रिय स्वरूप कैसा था ? और किस शतीतक
'एक अन्य प्रतिमापर “ओं निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य" लेख है। ___वस्त्र भी पुरातन शैलीका है। छोटे-छोटे फूलोंसे सुसज्जित किया गया है, जैसा कि उस कालकी अन्य मूर्तियोंमें देखा जाता है। उस समयकी वस्त्र-निर्माण-पद्धतिका परिचय इससे मिल सकता है। धोतीमें गाँठ बाँधनेका ढंग वसंतगढ़की प्रतिमाओंसे मिलता-जुलता है।
3 अम्बिका देवीके तनपर पड़े हुए वस्त्र, उसकी आँख, नासिका, मुखमुद्रा, आदिका तुलनात्मक अध्ययन, ताडपत्रीय चित्रोंसे होना चाहिए।
Aho ! Shrutgyanam