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खण्डहरोंका वैभव
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के चित्र, रिपोर्ट आफ दि आयोलाजिकल सर्वे बड़ौदा स्टेट १६३७-३८में प्रकाशित हैं । मूर्त्ति विज्ञानका सामान्य अभ्यासी भी इसके जैन होने की लेशमात्र भी शंका नहीं कर सकता । ऐसी स्थिति में तात्कालिक पुरातत्त्व विभाग के प्रधान डाक्टर हीरानन्द शास्त्रीने, इन कृतियोंको बौद्ध घोषित कर दिया । जब कि इनपर खुदे हुए लेख भी, जैनपरम्परासे जुड़े हुए हैं । शास्त्रीजीके भ्रान्त मतका निरसन डाक्टर हँसमुखलाल सांकालिया '
श्रीयुत साराभाई' नवाबने भलीभाँति कर दिया है। डाक्टर शास्त्रीजीने इन मूर्तियों के अध्ययनमें जैन- दृष्टिकोणका बिलकुल उपयोग नहीं किया है, जैसा कि उनके द्वारा उपस्थित किये गये मन्तव्यों से ज्ञात होता है । डाक्टर शास्त्रीजी इन मूर्तियों में से, दीवालमें लगी मूर्तिका समय सातवीं शती स्थिर करते है । उनके असिस्टेंट श्री गद्रे ई० स० ३०० मानते हैं और श्री साराभाई नवाब " वैरिगण" शब्दसे इससे भी दो शताब्दी आगे जाते हैं, पुरातन धातु प्रतिमाओं में यही एक मूर्ति सलेख है ।
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जैन- मूर्त्ति - कला के विषयमें विद्वानोंमें एक भ्रम फैला हुआ है । "प्राचीनतर मूर्त्तियोंमें, केश, कंधोंपर खुले गिरे होते हैं । प्राचीन जैनतीर्थकर मूर्त्तियों के न तो 'उष्णीष' होता है न 'ऊर्णा' परन्तु मध्यकालीन प्रतिमानों के मस्तकपर एक प्रकारका हल्का शिखर मिलता है । " ४ उपर्युक्त पंक्तियोंमें सत्यांश बहुत कम है । पुरातन जैन-धातु-प्रतिमाओं में एवं कहीं-कहीं प्रस्तर प्रतिमाओं में भी 'उष्णीष' व 'ऊर्णा' का अंकन स्पष्टतः मिलता है, एवं स्कंध प्रदेशपर फैले हुए बाल तो केवल ऋषभदेव स्वामी
' बुलेटिन आफ दि डेक्कन कालेज रिसर्च इन्स्टिक्य ट, मार्च
१९४० ।
भारतीय विद्या भाग १, अंक २, पृष्ठ १७९-१९४ । रिपोर्ट आफ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे बड़ौदा स्टेट १९३७-३८ । ४ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ २२६ ।
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