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खण्डहरोंका वैभव हैं। उनका प्रभामण्डल अादि परिकरके उपकरण दोनों शैलियोंसे सर्वथा भिन्न हैं। . धातु प्रतिमाएँ
कलाकार अात्मस्थ सौन्दर्यको उत्प्रेरक कल्पनाके सम्मिश्रणसे उपादान द्वारा रूप प्रदान करता है । इसमें उपादानकी अपेक्षा अान्तरिक सुकुमार भावोंकी ही प्रधानता रहती है। तात्पर्य कि उपादान कैसा ही क्यों न हो, यदि कलाकारमें सौंदर्य-सृष्टिकी उत्कृष्ट क्षमता है, तो वह भावोंका व्यक्तीकरण सफलतापूर्वक कर देगा। जैनाश्रित कलाकारोंने यही किया। इसीकारण जैन-मूर्ति-कलामें सभी प्रकारके उपादानोंका सफलतापूर्वक उपयोग हुआ। ... सुरक्षाकी दृष्टिसे धातुकी उपयोगिता विशेष मानी गई है। प्रस्तरमूर्तिमें खण्डित होनेकी संभावना रहती है। कालान्तरमें पपड़ियाँ पड़ जाती हैं । कभी-कभी भक्तकी असावधानीसे उपांग .खण्डित हो सकता है; पर धातु मूर्तियाँ इन सबका अपवाद हैं। अभीतक पुरातत्त्वके विद्वान् मानते आये थे कि धातुकी सर्वोत्कृष्ट प्रतिमाएँ बुद्धदेव ही की उपलब्ध होती हैं, जैन लोग धातु-मूर्ति-निर्माण कलामें बहुत ही पश्चात्पद हैं, परन्तु गत दश वर्षों में अनुसन्धानद्वारा जितनी भी जैन-धातु-प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं, वे न केवल धर्म एवं जैनाश्रित कलाकी दृष्टिसे ही महत्त्वकी हैं, अपितु भारतीय मूर्तिनिर्माण परम्पराके इतिहासका नवीन अध्याय खोलती हैं । इन मूर्तियोंने प्रमाणित कर दिया है कि गुप्त कालमें इस प्रकारकी कलाकृतियोंका सृजन न केवल उत्तरभारत या बिहारमें ही होता था, अपितु पश्चिम भारतवासी शिल्पी भी एतद्विषयक मूर्त्तिनिर्माण पद्धतिसे अनभिज्ञ न थे । उपलब्ध जैन-धातु-प्रतिमाओंका विवेचनात्मक इतिहास उपलब्ध नहीं है, पर तद्विषयक सामग्री पर्याप्त है। अब समय आ गया है कि बिशृंखलित कड़ियोंको एकत्र कर श्रृंखलाका रूप दें।
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