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जैन - पुरातत्त्व
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खड्गासन मूर्तियाँ जो गुप्तोत्तरकालीन और सपरिकर हैं, उनपर गुप्तमंदिरोंकी शैलीका बहुत असर है । ऐसी एक खडगासनस्थ प्रतिमा मेरे निजी संग्रहमें सुरक्षित है । इसका परिकर बड़ा सुन्दर और सर्वथा मौलिक है । इसमें दोनों ओर दो उड़ते हुए कीचक बतलाये गये हैं । पेट भी निकले हुए हैं, मानों सारा वज़न उन्हीं पर हो । ऐसी आकृति गुप्तकालीन मन्दिरों के स्तम्भों में खुदी हुई पाई गई है ।
गुजरात में विकसित सपरिकर मूर्तिकला के प्रतीक आबू व पाटनमें* विद्यमान हैं । वहाँपर भी प्रान्तीय उपकरणोंका व्यवहार हुआ है । सापेक्षतः विशाल प्रतिमाएँ (खड्गासनस्थ) विन्ध्यभूभि और महाकोसल में मिलती हैं। थोड़े बहुत प्रान्तीय भेदोंको छोड़ दें तो स्पष्टतः उत्तरीयकला परिलक्षित होगी ।
पूर्वीय कलाकृतियाँ मगध और बंगाल में मिलती हैं। मगध और बंगाल के परिकर बिलकुल अलग ढंगके होते हैं । मगधके कलाकारोंने 'पाल' प्रभावको नहीं भुलाया । वहाँ प्रस्तर के अतिरिक्त चूने के पलस्तर - की प्रतिमाएँ भी मिलती हैं ।
उत्तर और पूर्वीय जैनमूर्तिकला की परंपरा १४वीं शताब्दीके बाद रुक सी जाती है । इसका यह अर्थ नहीं कि मूर्तियाँ बनती न थीं । पर उनमें कलात्मक दृष्टिकोणका भाव स्पष्ट है ।
दक्षिणभारतीय जैन - मूर्तिकलाका इतिहास ईस्वी पूर्व २०० १३०० तकका माना जाता है । इस ओर भी जैनोंका सार्वभौमिक व्यक्तित्व बड़ा उज्ज्वल रहा है। विभिन्न राजवंशोंने अपने-अपने समय में शिल्पकी उन्नति में योग दिया है । दक्षिणभारतीय मूर्तिकलाके उत्कृष्ट प्रतीक आज भी सुरक्षित हैं। भावोंकी अपेक्षा यहाँकी मूर्तियोंमें भले ही समानता प्रतीत होती हो, पर कलाकी दृष्टिसे उनमें काफी अंतर है -- जो देश-भेद के कारण स्वाभाविक है । उनका अंग - विन्यास और मुखाकृति द्वाविड़ियन
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