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जैन पुरातत्व खूब प्रयोग किया है। उनकी मुखाकृति और नासिका तथा परिकरकी रचना-शैली ही स्वतन्त्र है । वर्णित तीनों प्रकारकी कला-कृतियाँ भूगर्भसे प्राप्त हो चुकी हैं।
उत्तरभारतीय मूर्तिकलाके उत्कृष्ट प्रतीक मथुरा, लखनऊ और प्रयागके संग्रहालयमें सुरक्षित हैं । बहुसंख्यक प्रतिमाएँ पुरातत्त्वविभागकी उदासीनताके कारण खण्डहर और अरण्यमें जंगली जातियोंके देवोंके रूपमें पूजी जाती हैं । उत्तरभारतके खण्डहर और जंगलोंमें, पाद-भ्रमण कर मैंने स्वयं अनुभव किया है कि सुन्दर-से-सुन्दर कला-कृतियाँ अाज भी उपेक्षित हैं। इनकी रक्षाका कोई समुचित प्रबन्ध नहीं है। उत्तरभारतीय मूर्तियोंके परिकरको गम्भीरतासे देखा जाय तो भरहुत और साँचीके अलंकरणोंका समन्वय परिलक्षित हुए बिना न रहेगा। मूर्त्तिके मस्तकके पीछेका भामंडल और स्तम्भ तो कई मूर्तियोंमें मिलेंगे। पूजोपकरण भी मिलते है, जो स्पष्टत: बौद्ध-प्रभाव है । - उड़ीसाके उदयगिरि और खंडगिरिमें इस कालकी कटी हुई जैन-गुफाएँ हैं, जिनमें मूर्तिशिल्प भी हैं। इनमेंसे एकका नाम रानीगुफा है। यह दो मंजली है और इसके द्वारपर मूर्तियोंका एक लम्बा पट्टा है, जिसकी मूर्तिकला अपने ढंगकी निराली है। उसे देखकर यह भाव होता है कि वह पत्थरकी मूर्ति न होकर एक ही साथ चित्र और काष्ठपरकी नक्काशी है' !
मुझे उड़ीसामें विचरण करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। सम्बलपुर और कटक जिले में बहुत-से जैन अवशेष अरक्षित दशामें पड़े हैं । इस ओर काष्ठका काम पर्याप्त होता है। मुझे भी एक काष्ठकी जैनप्रतिमा प्राप्त हुई थी। उड़ीसाकी कला का एक जैन-मंदिरका सम्पूर्ण तोरण आज भी
.. भारतीय मूर्तिकला, पृ० ६० ।
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