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खण्डहरोंका वैभव
विभिन्न अलंकरणोंसे विभूषित थीं। इस युगकी मूर्तियाँ आदि जैनाश्रितशिल्पपर वैदेशिक प्रभाव स्पष्ट है । उन दिनों पद्मासन और खडगासन तथा सपरिकर और परिकर दोनों प्रकारकी मूर्त्तियाँ बनती थीं । उस समयका परिकर सादा था । मथुरा जैनसंस्कृतिका व्यापक केन्द्र था । आज भी वहाँपर खुदाईकी अपेक्षा है।
बुद्धमूर्त्ति इन्हीं जैनमूर्त्तियोंका अनुकरणमात्र हैं । कुछ लोगोंका अनुमान है कि मोहन -जो-दडोकी कलाका प्रभाव जैनमूर्त्तियों पर पड़ा है । मूर्त्तिकलाका व्यापक प्रचार होते हुए भी उस समयका साहित्य मौन है। हाँ, आगमोंमें इनकी अर्चना - विधिका विशद वर्णन उपलब्ध होता है । ऐसी स्थिति में सिन्धु सभ्यता के प्रभावकी कल्पना काम कर सकती है । पर एक बात है। मोहन-जो-दड़ो और कुषाणयुग के बीचकी श्रृंखला जोड़नेवाली सामग्री नहीं मिलती है। केवल साहित्यिक उल्लेखोंसे ही संतोष करना पड़ता है । हाँ परवर्ती साहित्य में संकेत अवश्य मिलता है, पर वह नाकाफी है।
भारत के विभिन्न कोनोंमें जैनमूर्त्तियोंकी उपलब्धि होती ही रहती है । 'जिन' की मौलिक मुद्रा एक होते हुए भी परिकर में प्रान्तीय प्रभाव पाया जाता है । मुखाकृतिपर भी असर होता है । इन मूर्त्तियोंका नृतत्त्वशास्त्रकी दृष्टिसे अध्ययन करें तो उनको इन विभागों में बाँटना होगा । उत्तरभारतीय, दक्षिणभारतीय और पूर्वभारतीय; उत्तरभारतीय - गुजरात, राजस्थान, पंजाब, महाकोसल, मध्यप्रदेश, मध्यभारत और उत्तरप्रदेशकी प्रतिमाओं में एक ही शैली मिलती है । मुखाकृति, शरीराकृति और अन्य उपकरणों में काफी साम्य है । दक्षिणभारत द्राविड़ सभ्यताका दुर्ग माना जाता है । त: वहाँकी जैन-मूर्त्तियों पर भी उसका प्रभाव है । उपयुक्त सूचित शैलीसे काफी भिन्नत्व है । पूर्वी भारतकी मूर्तियाँ तो अपना स्वतन्त्र स्थान रखती हैं । वहाँके कलाकारोंने अपने प्रान्तके उपकरणोंका
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