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खण्डहरोंका वैभव
१ - प्रतिमा
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जैन - पुरातत्त्वकी मुख्य वस्तु है मूर्ति जैन साहित्य में इसकी अर्चनाका विशद वर्णन है, परन्तु उपलब्ध मूर्तियों का इतिहास ईस्वी पूर्व ३०० से ऊपर नहीं जाता । यों तो मोहन-जो-दड़ो और हरप्पाके अवशेषोंकी कुछ आकृतियाँ ऐसी हैं जिन्हें जिन मूर्ति कहा जा सकता है, पर यह प्रश्न अभी विवादास्पद-सा है | मौर्यकालीन कुछ मूर्तियाँ पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं । इसपरकी पालिश ही इसका प्रमाण है कि वे मौर्य युगीन हैं । सम्प्रति सम्राट द्वारा अनेक मूर्तियाँ बनवानेके उल्लेख याते हैं, पर मूर्तियाँ अभी तक उपलब्ध नहीं हुई । जो मूर्तियाँ सम्प्रतिके नाम के साथ जोड़ी जाती हैं, वे इतनी प्राचीन नहीं हैं। काफी बादकी प्रतीत होती हैं। मथुरामे जैन मूर्तियों का निर्माण पर्याप्त परिमाणमें हुया । श्रायागपट्ट भी मिले हैं। डा० वूल्नर कहते हैं - " श्रायागपट्ट यह एक विभूषित शिला है, जिनके साथ 'जिन' की मूर्ति या अन्य कोई पूज्य श्राकृति जुड़ी हुई रहती है । इनका अर्थ " पूजा या अर्पणकी तख्ती" कर सकते हैं, कारण कि अनेक शिलोत्कीर्ण लेखोंके उल्लेखानुसार "अहंतों की पूजा के लिए ऐसी शिलाएँ मंदिरमें रखी जाती थीं । ये प्रयागपट्ट कलाकी दृष्टिसे भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते थे। चारों ओर विभिन्न अलंकरणोंके मध्य भागमें पद्मासनस्थ जिन रहते हैं । कुछ प्रयागपट्टोंमें लेख भी मिले हैं। इन्हें जैनों की मौलिक कृति कहें तो अत्युक्ति न होगी । इन पट्टकोंपर ईरानी कलाका प्रभाव भी स्पष्ट परिलक्षित होता है । जैनाश्रित कलाके ये प्रयत्न विशुद्ध साम्प्रदायिक हैं ।
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इनायागपट्टोंमें त्रिशूल एवं धर्मचक्र ? के चिह्न भी पाये जाते हैं जो जैनधर्ममान्य मुख्य प्रतीक हैं ।
'धर्म चक्र - यहाँपर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि वस्तुतः धर्मचक्रका इतिहास क्या है ? यों तो श्रमण-संस्कृतिको एक धारा बौद्धधर्मसे इसका
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