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खण्डहरोंका वैभव
वश्यक है । इतिहास और विभिन्न राजवंशों के कालोंमें प्रचलित कलात्मक शैली आदि अनेक विषयोंका गंभीर अध्ययन पुरातत्त्व के विद्यार्थियों को रखना पड़ता है । क्योंकि ज्ञानका क्षेत्र विस्तृत है । यह तो सांकेतिक ज्ञान ठहरा ।
शिल्पकी श्रात्मा वास्तुशास्त्र में निवास करती है, परंतु जैन - शिल्पका यदि अध्ययन करना हो तो हमें बहुत कुछ अंशोंमें इतर साहित्यपर निर्भर रहना पड़ेगा, कारण कि जैनोंने शिल्पकलाको प्रस्तरोंपर प्रवाहित करने-कराने में जो योग दिया है, उसका शतांश भी साहित्यिक रूप देने में दिया होता तो श्राज हमारा मार्ग स्पष्ट और स्थिर हो जाता । यों तो बाराहमिहिरकी संहितामें जैन-मूर्त्तिका रूप प्रदर्शित है, परंतु जहाँ तक वास्तुकला के क्रमिक विकासका प्रश्न है, जैन साहित्य मौन है।
प्रसंगानुसार कुछ उल्लेख अवश्य आते हैं, जिनका सम्बन्ध शिल्पके एक अंग प्रतिमानों से है । यक्ष एवं यक्षिणियों के आयुध, स्वरूप यादिकी चर्चा 'निर्वाणकलिका' में दृष्टिगोचर होती है । नेमिचंदका 'प्रतिष्ठासार' श्राचारदिनकर ( वर्द्धमानसूरिकृत ) और ठक्कुर फेरुकृत 'वास्तुसार ' आदि कुछ ग्रंथोंके नाम लिये जा सकते हैं, परंतु इन ग्रंथोंके उल्लेख मूर्त्तिकता और मंदिरादि निर्माणपर कुछ प्रकाश डालते अवश्य हैं, किंतु बहुत कुछ अंशोंमें मानसारका स्पष्ट अनुकरण है । मंडनने यद्यपि स्वतंत्र ग्रंथ बनाये पर वे काफी बादके हैं। जब जैन समाजमें कलाके प्रति स्वाभाविक रुचि न थी, केवल अनुकरण प्रवृत्तिका जोर था । समरांगण सूत्रधार, रूपमंडन और देवतामूर्तिप्रकरण जैसे ग्रंथोंसे हमारा मार्ग अवश्य ही थोड़ा बहुत स्पष्ट हो जाता है। प्रतिष्ठा विषयक साहित्य में भी कुछ सूचनाएँ मिल जाती हैं, वे भी एकांगी ही हैं । बारहवीं सदीके कुछ ग्रंथोंमें चर्चा है कि आर्य खपुट और उसौर वाचक उमास्वाति ने भी 'प्रतिष्ठाकल्प - की रचना की थी । परंतु आज तक उनकी ये कृतियाँ अंधकार के गर्भ में
१ " गणधर सार्द्धशतक वृत्तिमें इसकी सूचना है ।
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