________________
५४
खण्डहरोंका वैभव
लोया जत्तामहूसवं करिति ॥ तीए चेव एगरत्तिए देव याणु भावेणं कुवायड्डिअजलपुण्णमल्लियाए दीवोपजलइ तिल्लं विणा।
अाज यद्यपि स्तूप मण्डपाच्छादित तो नहीं है, पर अजैन जनता, अाज भी इसे बहुत ही सम्मानपूर्वक देखती है । एवं कार्तिक अमावस्याको उत्सव भी मनाती है। उल्लेखसे ज्ञात होता है कि विक्रमकी चौदहवीं शताब्दीमें महावीर-निर्वाण-स्थानके रूपमें यह स्तूप प्रसिद्ध था। यदि वहाँ निर्वाण सूचक अन्य महत्त्वपूर्ण स्थान होता, तो जिनप्रभसूरिजी उसका उल्लेख अवश्य ही करते । श्रद्धाजीवी जैन-समाज इस स्तूपको विस्मृत कर चुका है । इसकी ईटें राजगृहीकी ईंटोंके समान हैं । व्यासको देखते हुए ऐसा लगता है कि किसी समय यह बहुत विस्तृत रूप में रहा होगा।
संभव है, खोज करने पर और भी जैन-स्तूप उपलब्ध हों। जैन-बौद्धस्तूपोंके भेदोंको न समझनेपर पुरातत्त्वविज्ञ कैसी भूले कर बैठते हैं, इसपर डाक्टर स्मिथके विचारकी अोर ध्यान आकृष्ट कर रहा हूँ।
पिछली शताब्दियोंका इतिहास इस बातकी साक्षी देता है कि कुषाणों के बाद भारतमें जैनाश्रित कृतियोंका व्यापक रूपसे सृजन प्रारम्भ हो गया था। प्रांतीय प्रभाव उनपर स्पष्ट है। ऐसी प्राचीन सामग्रीमें मगधकी कृतियाँ भी सम्मिलित हैं । ऐल, गुप्त, सोम, कलचुरि, राष्ट्रकूट, चौलुक्य
और वाघेलानो के समयमें भी अनेकों महत्त्वपूर्ण जैनाश्रित कृतियाँ निर्मित हुई। इनमेंसे कुछेक तो सम्पूर्ण भारतीयकलाका प्रतिनिधित्व कर सकती हैं । आबू , खजुराहो, राणकपुर, श्रवणबेलगोल, देवगढ़, जैसलमेर और कुभारिया आदि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । वास्तुकलाके साथ मूर्तिकलामें भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए । उत्तर पश्चिम कृतियाँ श्वेताम्बर सम्प्रदायसे सम्बद्ध हैं और दक्षिण पूर्वकी दिगम्बर सम्प्रदायसे ।
भारतीय जैन-शिल्पका अध्ययन तबतक अपूर्ण रहेगा, जब तक वास्तुकलाके अंग-प्रत्यंगोंपर विकासात्मक प्रकाश डालनेवाले साहित्यकी विविध
Aho ! Shrutgyanam