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जैन-पुरातत्त्व
हैं। ऐसी स्थितिमें जैनाश्रित शिल्पकलाकी कृतियोंका अध्ययन बड़ा जटिल और श्रमसाध्य हो जाता है। समुचित साहित्यके प्रकाशके विना शिल्पकलाका अध्ययन बहुत कठिन है। एक तो विषय भी आसान नहीं, तिसपर आवश्यक साधनोंका अभाव । साहित्यसे प्रकाशकी श्राशा छोड़कर वर्त्तमानमें कलात्मक कृतियोंके प्रकाशमें ही हमें अपना मार्ग खोजना होगा । विषय कठिन होते हुए भी उपेक्षणीय नहीं है। श्रम और बुद्धिजीवी विद्वान् हो इन समस्याओंको सुलझा सकते हैं। .
आज भी गुजरात-काठियावाड़में 'सोमपुरा' नामक एक जाति है, जिसका प्रधान कार्य ही शास्त्रोक्त शिल्पविद्याके संरक्षण एवं विकासपर ध्यान देना है । ये जैन-शिल्पस्थापत्यके भी विद्वान् और अनुभवी हैं । इन लोगोकी मददसे एक आदर्श जैन-शिल्पकला सम्बन्धी ग्रन्थ अविलम्ब तैयार हो ही जाना चाहिए । इसमें इन बातोंका ध्यान रखा जाना अनिवार्य है कि जिन-जिन प्रकारके शिल्पोल्लेख साहित्यमें आये हैं-वे पाषाणपर कहाँ कैसे और कब उतरे हैं, इनका प्रभाव विशेषतः किन-किन प्रान्तोंके जैन-अवशेषोंपर पड़ा है, बादमें विकास कैसे हुआ; अजैनसे जैनोंने
और जैनसे अजैन कलाकारोंने क्या लिया-दिया आदि बातोंका उल्लेख सप्रमाण, सचित्र होना चाहिए। काम निःसन्देह श्रमसाध्य है, पर असम्भव नहीं है, जैसा कि अकर्मण्य सोच बैठते हैं ।
अध्ययनको सुविधाके लिए जैनाश्रित शिल्पकला कृतियोंका विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है
. प्रतिमा, २ गुफा, ३ मन्दिर, ४ मानस्तम्भ, ५ इतर भाव-शिल्प, ६ लेख ।
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