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जैन-पुरातत्व की मूर्ति में मिलेंगे। यह उनकी विशेषता है। इसकी सप्रमाण चर्चा मैं अन्यत्र कर चुका हूँ। - यह लिखनेका एकमात्र कारण यही है कि उल्लिखित जैन-धातुप्रतिमामें, जो प्राचीन हैं, 'उष्णीष' 'ऊर्णा स्पष्ट हैं । मूर्तिपर लेख उत्कीर्णित है__ नम[B] सिद्ध [नम्] वैरिगणत.... उप[रि का-भार्य-संघ-श्रावक-" अभी-अभी बड़ौदा राज्यान्तर्गत अंकोटक'-अकोटाके अवशेषोंमेंसे पुरातन और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जैन-धातु-प्रतिमाओंका अन्यतम संग्रह प्राप्त हुअा है। बड़ौदामें मगनलाल दर्जीके यहाँ खुदाईके समय भी धातुमूर्तियोंका अच्छा संग्रह उपलब्ध हुअा है। इनमेंसे कुछ एकका परिचय वहाँके ही श्रीयुत उमाकान्तर प्रेमानन्द शाहने व पंडित लालचन्द्र भगवानदास गांधीने अपने लेखोंमें दिया है।
नवोपलब्ध मूर्तियाँ भारतीय जैनमूर्ति-विधानमें क्रान्तिकारी परिवर्तन कर सकें, ऐसी क्षमता है। इन प्रतिमाओंमें एक प्रतिमा ऐसी है, जिसपर
ओं देवधर्मोयं निवृत्तिकुले जिनभद्र वाचनाचार्यस्य ॥
'गुजरातकी प्राचीन ऐतिहासिक सामग्रीसे परिपूर्ण नगरों में इसकी भी परिगणना की जाती है। विक्रमकी नवीं शताब्दीमें लाटेश्वर सुवर्णवर्ष-कर्क राज्य-कालमें अंकोटक भी चौरासी प्रार्मोका मुख्य नगर था। शक संवत् ७३४, विक्रम संवत् ६६९ के दान-पत्रसे विदित होता है कि नवम-दशम शताब्दीमें अंकोटकका सांस्कृतिक महत्त्व अत्यधिक था। जैनोंका निवास भी प्राप्त मूर्तियोंसे प्रमाणित होता है।
जर्नल श्राफ ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट बरोरा, वॉ० १, नं० १, पृ० ७२-७९।
उजैन-सत्यप्रकाश, वर्ष १६, अंक १ ।
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