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जैन-पुरातत्व कुषाणकालीन जैनमूर्तियाँ भावशिल्पकी अनन्य कलाकृतियाँ है। उन दिनों मूर्तिकला उन्नतिके शिखरपर थी। कला और सौन्दर्यके साथ
संबंध आमतौरसे माना जाता है । बौद्ध-संस्कृतिसे प्रभावित इतिहासकारोंने माना है कि वह बौद्धपरम्पराकी मौलिक देन है। वे मानते हैं कि वाराणसीके पास सारनाथमें भगवान बुद्ध ने प्रथम देशना देकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया, और अशोकने इस प्रतीकको राजकीय संरक्षण दे इसे और भी व्यापक बना दिया, परन्तु वास्तविक सत्य तो कुछ और है। बात यह है कि यह प्रतीक मूलतः जैनोंका है। यों तो पोराणिक साहित्यसे स्पष्ट भी है कि इसकी प्रवर्तना जैनधर्मके प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभदेव तीर्थकरके द्वारा तक्षशिलामें हुई। यह तो हुई पौराणिक अनुश्रुति, परन्तु विशुद्ध साहित्यिक उल्लेखके अनुसार देखें तो भी जैन उल्लेख ही प्राचीन ठहरता है जो आवश्यक सूत्र नियुक्तिमें इस प्रकार है
"ततो भगवं विरहमाणो बहलीविसयं गतो, तत्थ बाहुबलीस्स रायहाणी तक्खसिला णामं तं भगवं वेताले य पत्तो, बाहुबलीस्स, वियाले णिवेदितं जहा सामी श्रागतो। कल्लं सविडिढए वंदिस्सामि त्तिण णिगतो, पभाते सामी विहरंतो गतो। बाहुबलीवि सविडिए णिग्गतो, जहा दसन्न विभासा, जाव सामी ण पेच्छति, पच्छा अधिति काऊण जत्थ भगवं वुत्थो तत्थ धम्मचक्कं चिन्धकारेति। तं सवर यणमयं जोयणपरिमंडलं, जोयणं च ऊसितो दंडो, एवं केई इच्छति । अन्ने भणंति-केवलनाणे उप्पन्ने तहिंगतो, ताहे सलोगेणं धम्मचक्कवि भूती अक्खाता, तेण कति ।"
-आवश्यक सूत्र नियुक्ति, पृष्ठ १८०-१८१ पटना आश्चर्यगृहमें ताम्रका एक धर्मचक्र सुरक्षित है, जो जैन-विभागमें रखा गया है।
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