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खण्डहरोंका वैभव
सम्बद्ध हाथ, पद्मासनके निम्न भागमें विभिन्न प्रकारके खुदे हुए बोर्डरबेलबूटे, आदि मूर्तिकलाका अभ्यासी सहसा इसपर विश्वास नहीं कर सकता । कारण कि उपर्युक्त श्रेणीकी मूर्त्तियाँ जिनकी अद्यावधि उपलब्धि हुई है, वे सब श्वेत संगमरमरपर खुदी हैं, जब कि मौर्यकाल में इस पत्थरका, मूर्ति निर्माण में उपयोग ही नहीं होता था, बल्कि उत्तरभारतमें भी सापेक्षतः इस पत्थर ने कई शताब्दी बाद प्रवेश किया है । सच कहा जाय, तो अधिकतर जैन- मूर्त्तियाँ कुषाण काल बाद की मिलती हैं । मध्यकालमें तो जैन मूर्त्ति निर्माण - कला बड़ी सजीव थी । सम्प्रति द्वारा संभव है कुछ मूर्तियोंका निर्माण हुआ हो, और आज वे उपलब्ध न हों ।
स्तूप- पूजा
प्राप्त साधनोंके आधारपर दृढ़तापूर्वक, जैन- पुरातत्त्वका इतिहास ईसवी पूर्व आठवीं शतीसे प्रारंभ करना समुचित जान पड़ता है । मगध उन दिनों ही नहीं, बल्कि सूचित शताब्दीसे पूर्व, श्रमण-संस्कृतिका महान् केन्द्र था । उस समय जैनाश्रित शिल्प-कृतियाँ अवश्य ही निर्मित हुई होंगी, पर उतनी प्राचीन जैन - कलात्मक सामग्री, इस ओर उपलब्ध नहीं हुई । मेरा तो जहाँतक अनुमान है कि अभीतक मगध में पुरातत्त्व की दृष्टिसे खननकार्य बहुत ही कम हुआ है ।
कुषाण-काल पूर्व मगध में स्तूप - पूजाका सार्वत्रिक प्रचार था । अपने पूज्य पुरुषोंके सम्मानमें या जीवनकी विशिष्ट घटनाकी स्मृति-रक्षार्थ स्तूप बनवानेकी प्रथाका सूत्रपात किसके द्वारा हुआ, अकाट्य प्रमाणोंके अभावमें निश्चयरूपसे कहना कठिन है । पर जो ग्रन्थस्थ वाङमय हमारे सम्मुख उपस्थित है, उसपरसे तो यही कहना पड़ता है कि इस प्रकारकी पद्धतिका सूत्रपात जैनपरम्परामें ही सर्वप्रथम हुआ ।
युगादिदेवको, एक वर्ष कठोर तपके बाद श्रेयांसकुमारने, आहार कराया था, उस स्थानपर कोई चलने न पावे, इस हेतुसे, एक थूभ - स्तूप बनवाये जानेका उल्लेख ' धर्मोपदेशमाला " की वृत्तिमें इस प्रकार श्राया है
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