________________
५०
खण्डहरोंका वैभव
गुजरातके पुरातत्वज्ञ श्री अमृतवसंत पंड्याने इसे "तीरथस्वामी" पढ़ा, क्योंकि ब्राह्मीमें 'थ' और "ब"में कम अन्तर है। अन्ततः तय हुआ कि "तीरथस्वामी" का सम्बन्ध जैनधर्मसे ही होना चाहिए । इस लेखकी लिपि क्षत्रप कालीन है। यह काल, सौराष्ट्र में जैनउत्कर्षका माना जाता है। श्री पंड्याजीका मानना है कि "क्षत्रप कालीन सौराष्ट्रमें जैनधर्मका अस्तित्व सूचक जो लेख बाबाप्याराके मठमें उपलब्ध हुअा है उसके बादके लेखोंमें यही उपर्युक्त लेख आता है।"
मगधके शासक शिशुनाग और नन्द नपति जैन-धर्मके उपासक थे। नन्दनृपति भगवान महावीरके माता-पिता, भगवान पार्श्वनाथ की अर्चना करते थे। भगवान महावीर गृहस्थावासमें जब भाव मुनि थे और राजमहलमें कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े थे, उस समयके भावोंको व्यक्त करनेवाली गोशीर्ष चन्दनकी प्रतिमा विद्युन्माली देव द्वारा निर्मित हुई एवं कपिल केवली द्वारा प्रतिष्ठापित हुई। बादमें वीरभयपतनके राजा उदायी व पट्टरानी प्रभावती द्वारा पूजी जाती रही। इस घटनाका उल्लेख प्राचीन जैन-साहित्यमें तो पाया ही जाता है, परन्तु इन्हीं भावोंको व्यक्त करनेवाली एक धातु-प्रतिमा भी उपलब्ध हो चुकी हैं । जिसका उल्लेख अन्यत्र किया गया है। ___ 'तित्थोगालो पइन्नय'से ज्ञात होता है कि नन्दोंने पाटलीपुत्रमें ५ जैन स्तूप बनवाये थे, जिनका उत्खनन कलाके द्वारा धनकी खोजके लिए हुअा। चीनी यात्री श्युअान् च्युआङ ने भी इन पंच जैन-स्तूपोंका उल्लेख यात्राविवरण में करते हुए लिखा है कि अबौद्ध राजा द्वारा वे खुदवा डाले गये । पहाडपुरसे प्राप्त ताम्र-पत्र (ईसवी ४७६)से फलित होता है कि प्राचार्य गुहनन्दी व उनके शिष्य 'पंचस्तूपान्वयी' कहलाते थे ।
१On Yuan Chawang's travels in India, P.96 एपिग्राफिया इंडिया । वॉ० XX पेज ५९ ।
Aho ! Shrutgyanam