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जैन-पुरातत्व
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देशका रहनेवाला था। मगधके राजवंशके साथ उसकी पारस्परिक मैत्री थी। अभयकुमारने इनको जिन-प्रतिमा भिजवाई थी। बादमें वह भारत अाता है और क्रमश: भगवान महावीरके पास आकर श्रमण-दीक्षा ग्रहण करता है। डॉ० प्राणनाथ विद्यालंकारको प्रभासपाटणसे एक ताम्रपत्र उपलब्ध हुअा था, इसमें लिखा है कि "बेबीलोनके नृपति नेबुचन्दनेज़ारने रैवतगिरिके नाथ नेमिके मंदिरका जीर्णोद्धार कराया था ।” जैनसाहित्य इस घटनापर मौन है। उन दिनों सौराष्ट्रका व्यापार विदेशोंतक फैला हुअा था, अतः उसी मार्गसे अधिकतर आवागमन जारी था । बहुत संभव है कि वह भी यहींसे आया हो और पूर्व प्रेषित जिनमूर्तिके संस्कारके कारण मंदिग्का जीर्णोद्धार करवाया हो, परन्तु इसके लिए और भी अकाट्य प्रमाणोंकी आवश्यकता है । हाँ, बेबीलोनके इतिहाससे यह अवश्य प्रमाणित होता है कि वहाँपर जो पुरातन-अवशेष-उपलब्ध हुए हैं, उनपर भारतीय-शिल्पका स्पष्ट प्रभाव है । वहाँकी न्याय-प्रणालिकापर भी भारतीय-न्याय और दण्ड-विधानकी छाया है ।
उक्त लेखसे स्पष्ट है कि ईसवी पूर्व छठवीं शतीमें गिरिनार पर जैनमन्दिर था । जूनागढ़से पूर्व "बाबा प्यारा” के नामसे जो मठ प्रसिद्ध है, वहाँपर जैन-गुफाएँ उत्कीर्णित हैं ।
बम्बईसे प्रकाशित दैनिक “जन्मभूमि" (२५-५-४१) में “पुरातत्व संशोधनका एक प्रकरण' शीर्षक नोट प्रकाशित हुआ था। उसमें एक नवोपलब्ध लेखकी चर्चा थी । इस लेखमें "तीरबस्वामी का नाम था ।
मुनि-दीक्षा अंगीकार कर भगवान् महावीरके दर्शनार्थ जाते समय हस्त्यावबोधके भावोंका प्रस्तरपर अंकन किया गया है जो श्राबूकी विमलवसहीमें आज भी सुरक्षित है।
२ टाइम्स आफ इण्डया १९-३-३५ 3महावीर-जैन-विद्यालय-रजत महोत्सव ग्रन्थ, पृ० ८०-१।
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