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जैन - पुरातत्त्व
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हुए, प्राचीन परम्पराको संभालते हुए, नवीनतम भावना और कलात्मक उपकरणोंकी सफल सृष्टि भी की। सामान्य वस्तुको भी सँजोकर कलात्मक जीवनका परिचय दिया । यद्यपि मंदिरों और गुफाओं को छोड़कर जैनाश्रित वास्तुकलाके प्रतीक उपलब्ध नहीं होते हैं, पर जो भी विद्यमान हैं वे उत्कृष्ट कलाके प्रतीक हैं । उनमें मानवताका मूक सन्देश है। सौम्य और समान भाववाली परम्परा जैनाश्रित पुरातन अवशेषोंके एक-एक अंगमें परिलक्षित होती है। इनकी कला केवल कलाके लिए न होकर जीवन के लिए भी है । अरस्तू ने कहा है कि "उस कलासे कोई लाभ नहीं, जिससे समाजका उपकार न होता हो ।” जैनाश्रित कला जनताके नैतिक स्तरको ऊँचा उठाती है । समत्वका उद्बोधन कर जनतंत्रात्मक विचार पद्धतिका मूक समर्थन करती है। त्यागपूर्ण -प्रतीक किसी भी देश के गौरवको बढ़ा सकते हैं । प्राचीनता
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जैन - पुरातत्त्वका इतिहास कबसे शुरू किया जाय ? यह एक समस्या है । कारण कि मोहन जोदड़ोकी खुदाईसे जो श्रवशेष प्राप्त किये गये हैं, उनमें कुछ ऐसे भी प्रतीक हैं, जिन्हें कुछ लोग जैन मानते हैं । जबतक वे निःसंशय जैन सिद्ध नहीं हो जाते, तबतक हम जैन - पुरातत्त्व के इतिहासको निश्चयपूर्वक वहाँ तक नहीं ले जा सकते । यद्यपि तत्कालीन एवं तदुत्तरवर्त्ती सांस्कृतिक साधनोंका अध्ययन करें, तो हमें उनके जैनत्वमें शंका नहीं रहती । कारण आर्योंके श्रागमनके पूर्व भी यहाँपर ऐसी संस्कृति थी, जो परम श्रास्तिक और आध्यात्मिक भावोंमें विश्वास करती थी । वैदिक साहित्यके उद्भट विद्वान प्रो० क्षेत्रेशचंद्र चट्टोपाध्याय तो कहते हैं कि वे लोग श्रमण संस्कृति के उपासक थे । इतिहास भी इस बातकी साक्षी देता है कि को यहाँ श्राकर संघर्ष करना पड़ा था । काफी संघर्ष के बाद भी वे लोग श्रार्यों में मिल नहीं सके । कारण कि उनकी अपनी स्वतंत्र संस्कृति थी, जो उनसे कहीं अधिक सबल और व्यापक थी । वह श्रमण संस्कृति ही होनी चाहिए ।
Aho! Shrutgyanam