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जैन-पुरातत्व
४५ भले ही तद्विषयक पुष्ट-सिद्धान्त लिखित रूपमें उपलब्ध न हों । अजन्ता, जोगीमारा, सिद्धण्णवास एवं तदुत्तरवर्तीय, एलोरा, चाँदवड़, एलीफेण्टा श्रादि अनेकों गुफाएँ हैं, जो भारतीय तक्षण और गृह-निर्माणकलाके सर्वश्रेष्ठ प्रतीक हैं । वास्तुकलाका प्रवाह समयकी गति और शक्तिके अनुरूप बहता गया, समय-समयपर कलाविज्ञोंने इसमें नवीन तत्त्वोंको प्रविष्ट कराया, मानो वह स्वकीय सम्पत्ति ही हो । निर्माण-पद्धति, औजार
आदिमें भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। जब जिस विषयका सार्वभौमिक विकास होता है, तब उसे विद्वान लोग लिपिबद्ध कर साहित्यका रूप दे देते हैं । जिससे अधिक समयतक मानवके सम्पर्कमें रह सकें, क्योंकि कल्पना जगत्के सिद्धान्तोंकी परम्परा तभी चल सकती है, जब सुयोग्य एवं प्रतिभासम्पन्न उत्तराधिकारी मिले। जैन-पुरातत्त्व ___ पुरातत्त्व शब्दमें अर्थ-गांभीर्य है । व्यापकता है । इतिहासके निर्माणमें इसकी उपयोगिता सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। भारतीय कलाकारोंने किसी भी प्रकारके उपादानोंको अपनाकर कला-नैपुण्यसे उनमें जीवनका संचार किया। अात्मस्थ-अमूर्त भावोंको मूर्त रूप दिया--अतः इस श्रेणीमें
आनेवाली कृतियोंको, रूप शिल्पात्मक कृतियाँ कहें तो अनुचित न होगा । संगीत और काव्यमें भावोंकी प्रधानता रहती है। इसमें भी वही बात है । श्राबू, देलवाड़ा, खजुराहो और ताजमहल किसी काव्यसे कथमपि कम नहीं हैं । काव्य और संगीतसे रूपशिल्पमें हमें भले ही भिन्नत्वके दर्शन होते हों, परन्तु भावगत एकत्व स्पष्ट है, भिन्नता केवल धर्मगत है । यहांपर मुझे ललित कलाके सूक्ष्म और स्थूल भेदोंकी चर्चामें नहीं पड़ना, परन्तु इतना भी कहनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता कि उच्चकला वही है, जिसके व्यक्तीकरणमें यथासाध्य सूक्ष्म उपादानोंका उपयोग किया जाय, उपादानमें जितनी सूक्ष्मता होगी, कला भी उतनी ही श्रेष्ठ होगी। इस
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