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जैन-पुरातत्त्व
४३ प्रोफेसर मुल्कराज प्रानन्दने शिल्पकी परिभाषा यों की है—“शिल्प वही है जो निर्माण-सामग्रियों द्वारा उच्चतम कल्पनाओंके आधारोंपर बनाया जाय । उस शिल्पको हम अद्वितीय कह सकते हैं, जिसकी कला एवं
कल्पनाका प्रभाव मनुष्यपर पड़ सके !" उपर्युक्त दार्शनिक परिभाषासे सापेक्षतः कलाकारका उत्तरदायित्व बढ़ जाता है- “मनुष्यपर प्रभाव” और “प्राप्त सामग्रियों द्वारा निर्माण" ये शब्द गम्भीर अर्थके परिचायक हैं । प्राप्त सामग्री अर्थात् केवल कलाकारके औजार एतद्विषयक साहित्यिक ग्रन्थ ही नहीं हैं, अपितु उनके वैयक्तिक चरित्र शुद्धिकी ओर भी व्यंग्यात्मक संकेत है। मानसिक चित्रोंकी परम्पराको सुनियंत्रित रूपसे उपस्थित करना ही कला है, जैसा कि समालोचकोंने स्वीकार किया है। ऐसी स्थितिमें शिल्पी केवल मिस्त्री ही नहीं रह जाता- अपितु सक्षम दार्शनिक एवं कलागुरुके रूपमें दृष्टिगोचर होता है । प्रकृतिमें बिखरे हुए अनन्त सौन्दर्यकी अनुभूति प्राप्त करता है, कल्पनाओंके सम्मिश्रणसे वह नि:स्सीम सौन्दर्यको विभिन्न उपादानों द्वारा ससीम करता है । सौन्दर्य-बोध 'स्व' आवश्यकतासे 'पर'का पदार्थ है, इसीलिए शिल्पीकी मानसिक सन्तानको भी कला कहा गया है।
कल्पनात्मक शिल्प-निर्माणमें जो मानसिक पृष्ठभूमि तैयार करती पड़ती है, वह अनुभवगम्य विषय है। जिनको प्राचीन खंडहर देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुअा है-यदि उनके साथ कला प्रेमी और कलाके तत्त्वोंको जानने वाले रहे हों तब तो कहना ही क्या-वे तल्लीन हो जाते हैं, भले ही उनके मर्मस्पर्शी इतिहाससे परिचित न हों। इन खंडहरो एवं ध्वस्त अवशेषोंमें कलाकारको सत्यका दर्शन होता है। तदनुकूल मानसिक पृष्ठभूमि तैयार होती है, तात्पर्य यह कि मानव संस्कृतिके विकास और संरक्षणमें जिनका भी योग रहा है, उनमें शिल्पकारका स्थान बहुत ऊँचा है। ... भारतीय वास्तुकलाका इतिहास यों तो मानव विकास युगसे मानना
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