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... जैन-पुरातत्व
. खारवेलके लेखसे स्पष्ट है कि नन्द-कालमें जैन-मूर्तियाँ थीं। सातवीं शतीमें भी श्रमण-संस्कृति, कलिंगमें उन्नतिके शिखरपर थी। खारवेलके लेखकी अन्तिम पंक्तिमें जीर्ण जलाशय एवं मंदिरके जीर्णोद्धारका उल्लेख है । वहाँपर उसी समय चौबीस तीर्थकरोंकी प्रतिमाएँ बैठाई। लेखान्तर्गत जलाशय ऋषितडाग ही होना चाहिए । इसका उल्लेख बृहत्कल्पसूत्र में
आया है । वहाँपर मेला लगा करता था । स्व० डा० बेनीमाधव वडुबाने इसे खोज निकाला था। अपने स्वर्गवासके कुछ मास पूर्व मुझे उन्होंने एक मानचित्र भी बताया था । ___उपयुक्त उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि ईसवी पूर्व पाँचवीं शताब्दीमें निश्चयतः जैन-मूर्तियोंका अस्तित्व था। मौर्यकालीन जैन-प्रतिमाएँ तो लोहानीपुर ( जो पटना ही का एक भाग है ) से प्राप्त हो चुकी हैं । लोहानीपुरमें १४ फरवरी १६३७ में प्राप्त हुई थीं। मूर्ति हल्के हरे रंगके पाषाणपर खुदी हैं। इसकी पॉलीस स्पर्धाकी वस्तु है । शताब्दियोंतक भू-गर्भ में रहते हुए भी उसकी चमकमें लेशमात्र भो अन्तर नहीं आया, जो मौर्यकालीन शिल्पकी अपनी विशेषता है । स्वर्गीय डा० जायसवालजीने इसका निर्माणकाल गुप्तपूर्व चार सौ वर्ष स्थिर किया है । मूर्ति २३ फुट ऊँची हैं ।
मौर्य-सम्राट सम्प्रति वीरशासनकी प्रभावना करनेवाले व्यक्तियोंमें अग्रगण्य हैं । सम्प्रतिद्वारा विदेशोंमें प्रचारित जैन-धर्मके अवशेष,
आज भी वहाँ बसनेवाली जातियोंके जीवनमें पाये जाते हैं । यूनानकी 'समनिमा जाति' श्रमण परम्पराकी अोर इंगित करती है। कहा जाता है कि सम्प्रतिने लाखों जिन-प्रतिमाएँ व मन्दिर बनवाये थे । अद्यावधि गवेषित पुरातत्त्व सामग्रीसे उपयुक्त पंक्तियोंका लेश मात्र भी समर्थन नहीं होता। अाज सम्प्रतिद्वारा निर्मित जो मूर्तियाँ घोषित की जाती हैं और उनकी विशेषताएँ बतलाई जाती हैं वे ये हैं-लम्बकर्ण, बगलसे
.... 'जैब एंटीक्वेरी भाग ५
वि पटर्शित ।
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