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विभिन्न नगर-ग्राम-खण्डहर - वनों में विचर चुके थे । उस समय भी मैंने विहार में नेवाले खण्डहरों और वनोंमें बिखरे शिल्पावशेषोंके यथामति नोट्स लिये थे । कुछ एकका प्रकाशन भी "विशाल भारत" में हुआ था । जब पुन: मध्यप्रदेश श्राना पड़ा तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । इससे धार्मिकलाभ तो हुआ ही, पर साथ ही तीन लाभ और भी हुए । प्रथम तो विन्ध्यप्रदेशके कतिपय खण्डहरोंमें बिखरी हुई जैन - पुरातत्त्वकी सामग्रीका अनायास संकलन हो गया। यद्यपि विन्ध्यभूमिका मेरा भ्रमण अत्यन्त सीमित ही था, पर वहाँ जो साधन उपलब्ध हुए वे वहाँकी श्रमणसंस्कृति और कलाका भलीभाँति प्रतिनिधित्व कर सकते हैं । द्वितीय लाभ यह हुआ कि कटनी तहसील स्थित बिलहरी श्रादिकी सर्वथा नवीन और पूर्णतया उपेक्षित जैनाश्रितशिल्प व मूर्तिकला सम्पत्तिके दर्शन हुए । कलचुरि युगीन जैन मूर्तियों का तब तक मेरा अध्ययन पूर्ण ही रहता जबतक मैं इन खण्डहरोंको न देख लेता; क्योंकि तात्कालिक कलाकेन्द्रोंमें बिलहरीका भी स्थान था । पूर्व निरीक्षित खण्डहरोंको पुनः देखनेका अवसर प्राप्त हुआ । यद्यपि सम्पूर्ण तो नहीं देख पाया, किन्तु अल्पकालमें सीमित पुनर्विहारसे जो सामग्री उपलब्ध हुई उससे महाकोसलके जैन इतिहास और वैविध्य दृष्ट्या जैनमूर्ति कलापर जो नवीन प्रकाश पड़ा उससे मन प्रमुदित हुआ । दो-एक ऐसी कलाकृतियाँ प्राप्त हो गई जो भारतमें अन्यत्र अनुपलब्ध हैं - एक तो स्लिमनाबादका नवग्रह युक्त जिनपट्टक, दूसरा श्रमण-वैदिक समन्वयका प्रतीक व तीसरा जिनमुद्राका हिन्दू मूर्तियों पर सांस्कृतिक प्रभाव । यह श्रमण संस्कृतिके लिए महान् गौरवकी बात है ।
तीसरा लाभ हुआ पुरातन सर्वधर्मावलम्बी अरक्षित - उपेक्षित कृतियोंका संकलन | जिस प्रकार महाकोसल के सांस्कृतिक विकास में १५ सौ वर्षोंसे श्रमणपरम्पराने योग दिया उसी श्रमणपरम्पराके एक सेवक द्वारा विशृंखलित कृतियोंका एकीकरण भी हुआ । यह बात मैं विनम्रता पूर्वक ही लिख रहा हूँ । इस संग्रहका श्रेय तो सम्पूर्ण जैन समाजको ही मिलना
Aho ! Shrutgyanam