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इस कार्यमें स्थानीय विद्वान् व मुनि ही अधिक सफलता प्राप्त कर सकते हैं । सरकारका मुँह ताके बैठे रहना व्यर्थ है । न पुरातत्त्वविभागके भरोसे ही रहना उचित है । आपकी संस्कृतिके प्रति जितना श्रापको गौरव व अनुराग होगा, जितना श्राप श्रम करेंगे उतनी आशा, कम-से-कम मैं तो वैतनिक व्यक्तियोंसे नहीं करता, मेरा अनुभव मुझे मजबूर करता है ।
सूचनात्मक अनुपूर्ति
इन पंक्तियोंके लिखे जानेके व वैभवके छपनेके बाद भी मुझे अपनी पैदल यात्रामें जैन और हिन्दू - पुरातत्त्व व मूर्तिकलाकी प्रचुर मूल्यवान् सामग्री उपलब्ध हुई हैं, उनका उपयोग मैं भविष्य में करूँगा ।
आभार और कृतज्ञता
सर्वप्रथम मैं अपने परम पूज्य गुरुदेव शान्तमूर्ति उपाध्याय मुनि श्री सुखसागरजी महाराज व मेरे ज्येष्ठ गुरुबन्धु मुनि मंगलसागरजी महाराजके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ जिनकी छत्र-छाया में रहकर मैं कुछ सीख सका और उन्हीं के कारण धार्मिक साधना के साथ मेरी रु. च खण्डहरोंके अन्वेषण में प्रवृत्त हुई । समय- समयपर उन्होंने अपने अनुभवोंसे मुझे लाभान्वित किया और स्वयं कष्ट सहकर भी मेरी शोध साधनाकी गतिमें मन्दता नहीं आने दी। वर्ना जैन मुनिके लिए यह कार्य बहुत ही कठिन है ।
श्रीयुत बाबू लक्ष्मीचन्दजी जैन व बाबू श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीयका मैं हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी पुष्पमालामें इसे स्थान दिया और ताज़ों से पुन: पुन: मुझे प्रेरित किया । यदि श्री गोयलीयजी मुझसे कठोरता से काम न लेते तो शायद इसका प्रकाशन भी शीत्र संभव न होता । उन्होंने हर तरहसे इसे सुन्दर बनानेमें जो श्रमदान दिया है, उसका मूल्य आभार या धन्यवादसे कैसे अंकित किया जा सकता है ।
खण्डहरोंके वैभवमें प्रकाशित चित्रोंके कतिपय ब्लाक्स श्रीयुत राजेन्द्र
Aho ! Shrutgyanam