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कि इसमें प्रकाशित निबंधों में १ व १० को छोड़कर शेष सबमें मैंने अपनी खोजको ही महत्त्व दिया है। प्रयागसंग्रहालयकी जैन मूर्तियोंपर यद्यपि श्री सतीशचन्द्रजी कालाका भी एक निबंध मेरे अवलोकनमें आया है, जिसकी कुछ स्खलनात्रों का परिमार्जन मुझे इसी वैभवमें करना पड़ा है, जो परिवद्धन मात्र है । इत: पूर्व प्रयाग संग्रहालयकी जैनमूर्तिपर मेरा निबंध धारावाहिक रूपसे, ज्ञानपीठके मुखपत्र 'ज्ञानोदय' ' में प्रकाशित हो चुका था । विन्ध्य और मध्यप्रदेशके पुरातत्त्वकी समस्त सामग्री सर्वप्रथम ही समुचित रूपसे वैभवमें प्रकाशित हो रही है । मैंने जो निबंध लेखनकी तारीखें डाली हैं वे परिवर्द्धित कालसे सम्बन्ध रखती हैं। मुझे जहाँतक स्मरण है मध्यप्रान्तके पुरातत्त्वपर इसको छोड़कर - मैं विनम्रता पूर्वक ही लिख रहा हूँ, अन्यत्र कहीं पर भी विस्तृत रूपसे संकलित साधनोंका प्रकाशन नहीं हुआ है । इतः पूर्व विद्वत्समाज द्वारा गवेषित शैल्पिक साधनों का इसमें उपयोग नहीं किया है। मैंने समझ पूर्वक ही अपना क्षेत्र सीमित रखा है । जिन खण्डहर और शिल्पावशेष व मूर्तियोंका साक्षात्कार मैंने नहीं किया वे महत्वपूर्ण होते हुए भी उन्हें - इसमें स्थान नहीं दिया । मेरा ऐसा करनेका एक यह कारण भी है कि यदि भारतके प्रत्येक जिलेके विद्वान अपने-अपने भू-भागोंकी कला - लक्ष्मीपर इस प्रकार प्रकाश डालने लगेंगे तो बहुत बड़ा सांस्कृतिक कार्य हो जायगा । कमसे कम जैन विद्वानोंसे और मुनि व पंडितोंसे मेरा विनम्र निवेदन है कि अपने प्रान्तीय ( या जहाँ हों वहाँके ) संग्रहालयस्थ व विहार मार्ग में आने वाले अवशेषोंपर विवेचनात्मक प्रकाश अवश्य ही डालें ।
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१ वर्ष १ अंक ३, ४, ५, सन् १९४९ ।
मैंने सुना है कि पं० प्रयागदत्तजी शुकुने श्रभी अभी "सतपुड़ा की सभ्यता" नामक ग्रन्थ प्रकट किया है, पर प्रयत्न करनेपर भी इन पंक्तियोंके लिखते समय तक मैं उसे नहीं देख सका हूँ ।
Aho ! Shrutgyanam