Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण
नौ प्रकृतिका बंधस्थान के काल की अपेक्षा तीन विकल्प हैंअनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें अनादि-अनन्त विकल्प अभब्यों में होता है, क्योंकि अभव्यों के नौ प्रकृतिक बंधस्थान का कभी भी विच्छेद नहीं पाया जाता है। अनादि-सान्त विकल्प भव्यों में होता है, क्योंकि भव्यों के नौ प्राकृतिक बंधस्थान का कालानर में विच्छेद पाया जाता है तथा सादि-सान्त विकल्प सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुए जीवों के पाया जाता है । इस सादि-सान्त विकल्प का जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट काल देशोन अपार्श्व पुद्गल परावर्त है । जिसे इस प्रकार समझना चाहिए कि सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ जो जीव अन्तमुहूर्त काल के पश्चात् सम्यग्दृष्टि हो जाता है, उसके नौ प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य काल अन्तमुहूर्त पाया जाता है तथा जो जीव अपार्ध पुद्गल परावर्त काल के प्रारम्भ में सम्यम्हष्टि होकर और अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, अनन्तर अपार्ध पुद्गल परावर्त काल में अन्तर्मुहुर्त शेष रहने पर जो पुनः सम्यग्दृष्टि हो जाता है, उसके उत्कृष्ट काल देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्त प्रमाण प्राप्त होता है ।
छह प्रकृतिक बंधस्थान का जधन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल एक सौ बत्तीस सागर है । वह इस प्रकार है कि जो जीव सकल संयम के साथ सम्यक्त्व को प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर उपशम या क्षपक श्रोणि पर चढ़कर अपूर्वकरण के प्रथम भाग को व्यतीत करके चार प्रकृतिक बंधन करने लगता है, उसके छह प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त होता है, अथवा जो उपशम सम्यग्दृष्टि स्वल्पकाल तक उपशम सम्यक्त्व में रहकर पुनः मिथ्यात्व में चला जाता है, उसके भी जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । उत्कृष्ट काल एक सौ बत्तीस सागर इस प्रकार समझना चाहिए कि