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सप्ततिका प्रकरण उदयस्थान उपशम सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों को ही प्राप्त होता है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीव को अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान प्रथमोपशम सम्यक्त्व के समय होता है तथा जिसने अनन्तानुबंधी की उबलना की उस औपशमिक अविरत सम्यम्हष्टि के चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। क्योंकि अनन्तानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियों के क्षय होने पर ही उसकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार छह प्रकृतिक उदयस्थान में २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं।
सम्यग्मिध्याइष्टि जीवों के सात प्रकृतिक जगशान के रहने २८, २७ और २४ ये तीन सत्तास्थान होते हैं। इनमें से अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला जो जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, उसके अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, किन्तु जिस मिथ्यादृष्टि ने सम्यक्त्व की उद्वलना करके सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान को प्राप्त कर लिया किन्तु अभी सम्पग्मिथ्यात्व की उद्वलना नहीं की, वह यदि मिथ्यात्व से निवृत्त होकर परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है तो उस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव १ क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां त्वेकविंशतिरेव, क्षायिक हि सम्यक्त्वं सप्तकक्षये भवति, सप्तकक्षये च जन्तुरेकविंशतिसत्कर्मेति ।
–सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७२ २ सम्यग्मिच्यादृष्टि के २७ प्रकृतिक सत्तास्थान होने के मत का उल्लेख
दिगम्बर परम्परा में देखने में नहीं आया है। गो. कर्मकांड में वेदककाल का निर्देश किया गया है, उस काल में कोई भी मिथ्याइष्टि जीव वेदक सम्यग्हष्टि या सम्यग्मिध्याहृष्टि हो सकता है, पर यह काल सम्यक्स्य की उद्वलना के चालू रहते हुए निकल जाता है। अत: वहाँ २७ प्रकृतिक सत्ता वाले को न तो वेदक सम्यक्त्व की प्राप्ति बतलाई है और न सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान की।