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सप्ततिका प्रकरण
है, अतः चारित्रमोहनीय की क्षपणा करने वाले जीव के उक्त दस प्रकृतियों की सत्ता नियम से नहीं होती है।
जो जीव चारित्रमोहनीय की क्षपणा करता है, उसके भी यथाप्रवृत्त आदि तीन करण होते हैं। यहाँ यथाप्रवृत्तकरण सातवें गुणस्थान में होता है और आठवें गुणस्थान की अपूर्वकरण और नौवें गुणस्थान की अनिवृत्तिकरण संज्ञा है ही। इन तीन करणों का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है, तदनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये । यहाँ अपूर्वकरण में यह जीब स्थितिघात आदि के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय की आठ प्रकुतियों का इस प्रकार क्षय करता है, जिससे नौवें गुणस्थान के पहले समय में इनकी स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग शेष रहती है तथा अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभागों के बीत जाने पर-स्त्यानद्विनिक, हाफपनि नरकानुपर्ती, तिर्यंचगति, लियंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि जातिचतुष्क, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण, इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति की संक्रम के द्वारा उद्वलना होने पर बह पल्य के असंख्यातवे भाम मात्र शेष रह जाती है। तदनन्तर गुणसंक्रम के द्वारा उनका प्रति समय बध्यमान प्रकृतियों में प्रक्षेप करके उन्हें पूरी तरह से क्षीण कर दिया जाता है। यद्यपि अप्रत्याख्यानाबरण और प्रत्याख्यानाबरण कषाय की आठ प्रकृतियों के क्षय का प्रारम्भ पहले ही कर दिया जाता है तो भी इनका क्षय होने के पहले मध्य में ही उक्त स्त्यानद्धित्रिक आदि सोलह प्रकृतियों का क्षय हो जाता है और इनके क्षय हो जाने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में उक्त आठ प्रकुतियों का क्षय होता है।'
१ अनियट्टिबायरे पीणगिद्धितिनिरयतिरियनामाओ । संखेज्ज इमे सेसे तप्पाओगाओ खीयंति ॥ एत्तो हणइ फसायट्ठगं पि"....