Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पारिभाषिक शब्दकोष
शायोपशमिक सम्यग्दृष्टि-मोहनीयफर्म की प्रकृतियों मे से क्षय योग्य प्रकृतियों
के क्षय और शेष रही हुई प्रकृतियों के उपशम करने से सम्यक्त्व प्राप्त
करने वाले जीव को कहते हैं। भोणकषाय वीतराम छमस्थ गुणस्थान-वन जीवों के रवरूप विशेष को कहते
हैं जो मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय कर चुके हैं फिन्त रोष छदम [वाति
कर्मों का आवरण अभी विद्यमान है। ना भव-सम्पूर्ण भकों में सबसे छोटे भव । क्षेत्र अनुयोगदार-जिस में विवक्षित धर्म वाले जीवों का वर्तमान निवास-स्थान
बतलाया जाता है, उसे क्षेत्र अनुयोगनार कहते हैं । विषाकी प्रकृति-जो प्रकृतियाँ क्षेत्र की प्रधानता से अपना फल देती हैं, उन्हें
क्षेत्रविपाको प्रकृति कहते हैं । अथवा विग्रह-गति में जो कर्म प्रकृति उदय में आती है, अपने फल का अनुभव कराती है, वह क्षेत्रविपाकी प्रकृति है ।
सरस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर गाय की जीम जैसा
खुरदरा, कर्कश हो । इसे कर्कशस्पर्श नामकम भी कहा जाता है ।
गंध नामकर्म-जिस कर्म के उदय से पारीर में शुम अच्छी या अशुभ बुरी गंध
पति-गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय और जिससे जीव
मनुष्य, तिर्यच, देव या नारक व्यवहार का अधिकारी कहलाता है, उसे गति कहते है। अथवा चारों गतियो- नरकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव में
यमन करने के कारण को गति कहते हैं । गतिस-उन जीवों को कहते हैं जिनको उदय तो स्थावर नासकर्म का होता
है, किन्तु गतिक्रिया पाई जाती है । गति नामकर्म-जिसके लक्ष्य से आत्मा मनुष्यादि गतियों में गमन करे उसे गति
कहते हैं। गमिक अल-आदि, मध्य और अवसान में कुछ विशेषता से उमी सूत्र को बार
बार कहना गमिक श्रत है ।। गुणाणु-पांच शरीरों के योग्य परमाणुओं की रस-शक्ति का बुद्धि के द्वारा खंडन
करने पर जो अविभागी अंश होता है, उसे गुणा या मावाण वाहते हैं ।