Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 522
________________ परिशिष्ट-२ छायमस्थिक यथाख्यातसंयम-ग्यारहवें (उपशांतमोह) और बारहवें (क्षीणमोह) गुणस्थानवी जीवों को होने वाला संयम । योपस्थापनीय संयम--पूर्व संगम पर्याय को खेदकर फिर से उपस्थापन (प्रता रोपण) करना। जघन्य अनन्तानन्त- उत्कृष्ट युतानन्त की संख्या में एक को मिलाने पर प्राप्त राशि। अघन्य असंख्याता संख्यात--तस्कृष्ट युक्तासंख्यात की राशि में एक को मिलाने पर प्राप्त संख्या । अन्य परीतामन्त-उत्कृष्ट असंख्यातासंस्पात में एक को मिसा देने पर प्राप्त राशि। जघन्य परोतासंख्यात-उत्कृष्ट संख्यात में एक को मिलाने पर प्राप्त संख्या । जघन्य युस्तामात-उत्कृष्ट परीतानन्त की संख्या में एक को मिलाने पर प्राप्त राशि । जघन्य युक्तासल्यास- उत्कृष्ट परीतासंख्यात की राशि में एक को मिलाने पर प्राप्त राशि। जघन्य -सबसे कम स्थिति बाला बंध । अघन्य संपात-दो की संख्या। जालकाय जलीय शरीर, मो अस परमाणुओं से बनता है। जासि—यह शब्द जिसके बोलने या सुनने से सभी समान गुणधर्म वाले पदार्थों का प्रहण हो जाये। जाति नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव स्पर्शन, रसन आदि पाच इन्द्रियों में से क्रमशः एक, दो, तीन, चार, पांच इन्द्रियाँ प्राप्त करके एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय मोर पंचेन्द्रिय कहलाता है। नाति भव्य-जो भव्य मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी उसको प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उन्हें ऐसी अनुकूल सामग्री नहीं मिल पाती है जिससे मोक्ष प्राप्त कर सकें। जिन--स्वरूपोपलब्धि में बाधक राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध आदि भाव को एवं मानावरण बादि रूप धाति दय्य कर्मों को जीतकर अपने अनन्तज्ञानदर्शन आदि आत्म-गुणों को प्राप्त कर लेने वाले जीव जिन कहलाते हैं।

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