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परिशिष्ट २
मृस्पर्श नामकर्म- - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर मक्खन जैसा कोमल हो ।
मोक्ष - सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना ।
मोहनीय कर्म- जीव को स्वपर विवेक तथा स्वरूप- रमण में बाधा पहुँचाने वाला कर्म अथवा आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करने वाले कर्म को मोहनीयकर्म कहते हैं।
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(य)
समाख्यात संगम - समस्त मोहनीयकर्म के उपशम या क्षय से जेसा जात्मा का स्वभाव बताया है, उस अवस्था रूप वीतराग संयम ।
यथाप्रवृत्त करण -- जिस परिणाम शुद्धि के कारण जीव आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की स्थिति पस्योपम के असंख्यातवें भाग कग एक कोड़ा कौड़ी सागरोपम जितनी कर देता है। जिसमें करण से पहले के समान अवस्था (स्थिति) बनी रहे, उसे यथाप्रवृत्तकरण कहते हैं ।
यत्रतत्रानुपूर्वी जहां कहीं से अथवा अपने इन्द्रित पदार्थ को प्रथम मानकर
गणना करना यत्रतत्रानुपूर्वी है ।
यवमध्यभाग --- आठ यूका का एक यवमध्यभाग होता है ।
यशः कीर्ति - किसी एक दिशा में प्रशंसा फैले उसे कीति और सब दिशाओं में प्रशंसा फैले उसे यशःकोति कहते हैं । अथवा दान तप आदि से नाम का होना कीर्ति और शत्रु पर विजय प्राप्ति से नाम का होना यश है ।
यदाः कोसि नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव की संसार में बना और
कीर्ति फैले ।
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यावत्कथित सामायिक जो सामायिक ग्रहण करने के समय से जीवनपर्यन्त पाला जाता है ।
युग-पांच वर्ष का समय । यूका - आठ लीख की एक यूका (जूं) होती है । योग-साध्वाचार का पालन करना संयम-योग है ।
घचन,
काय
आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होने को योग कहते हैं । आत्मप्रदेशों में अथवा आत्मशक्ति में परिस्पन्दन मन द्वारा होता है, अतः मन, बचन, काय के कर्म व्यापार को अथवा पुगल
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