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पारिमाषिक शब्द-कोष
स्यावर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीच स्थिर रहे, सर्दी-गमी से बचने
का प्रयत्न करने की शक्ति न हो । स्थितकल्पो-जो बाचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातर पिंड, राजपिट, कृतिकर्म, नत,
ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पयूषण इन दस कल्पों में स्थित हैं । स्थितास्थितकल्पी-जो शय्यासरपिंड, व्रत, ज्येष्ठ और कृति कर्म इन चार कल्पों
में स्थित तथा शेष छह कल्पों में अस्थित हैं। स्थिति-विवक्षित कर्म के आत्मा के साथ लगे रहने का काल । स्थितिघात-कर्मों की बड़ी स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा घटा देने अर्थात्
जो कर्म दलियः आगे उदय में आने वाले हैं उन्हें अपवर्तनाकरण के
द्वारा अपने उदय यो नियत समय से हटा देना स्थितिघात है । स्थितिबंध-जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में अमुक समय तक
अपने-अपने स्यमाव का त्याग न कर जीव के साथ रहने की काल
मर्यादा का होना । कि अक्षर-पास के क्षय से होने वाले जीव के जिन परिणाम
विशेषों से स्थितिबंध होता है, उन परिणामों को स्थितिबंष अध्यवसाय
कहते हैं । स्थितिस्थान-किसी कर्म प्रकृति की जघन्य स्थिति से लेकर एक-एक समय
बनते-बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त स्थिति के भेव । स्थिर नामकर्म-जिस फर्म के उदय से जीव के दांत, गुड्डी, ग्रीवा आदि शरीर
के अवयव स्थिर हों अपने-अपने स्थान पर रहें । स्निग्धस्पर्श भामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर धी के समान
चिकना हो। पर्वक-वर्गणाओं के समूह को स्परक कहते हैं। स्पर्ध मामकर्म-जिरा कर्म के उदय से शरीर का स्पर्श कर्कषा, मृदु, स्निग्ध,
रूक्ष आदि रूप हो। स्पर्शम अनुयोगद्वार - विवक्षित धर्म याले जीवों द्वाग किये जाने वाले क्षेत्र
स्पर्श का समुच्चय रूप से निर्देश करना । स्पर्शनेन्द्रिय व्यंजमावग्रह-स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा होने वाला अत्यन्त अध्यक्त
ज्ञान ।