Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 549
________________ ६० संघात समासत किसी एक मार्गणा के अनेक अवयवों का शान । संज्वल कचाय - जिस कषाय के उदय से आत्मा को यथाख्यात चारित्र की Auco पारिभाषिक कोम प्राप्ति न हो तथा सर्वविरति चारित्र के पालन में बाबा हो । संज्ञा - नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान को अथवा अभिलाषा की संज्ञा कहते है । संज्ञाक्षर-अक्षर की आकृति, बनावट, संस्थान आदि जिसके द्वारा यह जाना जाये कि यह अमुक अक्षर है । संशित्व - - विशिष्ट मनशक्ति, दीर्घकालिकी संज्ञा का होना । संशी बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट में प्रवृत्ति निवृत्ति करने वाले जीव | अथवा सम्यग्ज्ञान रूपी संज्ञा जिनको हो, उन्हें संज्ञी कहते हैं। जिनके लब्धि या उपयोग रूप मन पाया जाये उन जीवों को संशी कहते हैं । संगीत - संज्ञी जीवों का अल । संभव सत्ता --- किसी कर्म प्रकृति की अमुक समय में सत्ता न होने पर भी भविष्य में सत्ता की संभावना मानना । संयम - सावरा योगों-- पापजनक प्रवृत्तियों से उपरत हो जाना अथवा पापजनक व्यापार- आरम्भ समारम्भ से आत्मा को जिसके द्वारा संयमित नियमित किया जाता है उसे संयम कहते हैं अथवा पाँच महात्रतों रूप यमों के पालन करने या पाँच इन्द्रियों के जय को संग्रम कहते हैं । संबर - आस्रव का निरोष अंबर कहलाता है । - संवासानुमति – पुत्र आदि अपने सम्बन्धियों के पापकर्म में प्रवृत्त होने पर भी उन पर सिर्फ ममता रखना । संवेध - परस्पर एक समय में अविरोध रूप से मिलना । संस्थान नामकर्म --- जिस कर्म के उदय से शरीर के मिश्र मिश्र शुभ या अशुभ आकार बनें । संसारी भीष--जो अपने यथायोग्य द्रव्यप्राणों और ज्ञानादि भावप्राणों से युक्त होकर नरकादि चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करते हैं । संहनन नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से हाड़ों का आपस में जुड़ जाना अर्थात् रचना विशेष होती है । सांशयिक मियात्व- समीचीन और असमीचीन दोनों प्रकार के पदार्थों में से

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