Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 550
________________ परिशिष्ट-२ किसी भी एक का निश्चय न होना । अथवा संशय से उत्पन्न होने वाला मिथ्यात्व । अथवा-देव-गुरु-धर्म के विषय में सदेहशील बने रहना । सकलप्रत्यक्ष- सम्पूर्ण पदार्थों को उनकी विकालवती पर्यायों सहित युगपत जानने वाला शौच । सत्ता-- बंध रामय सा संक्रमण समय से लेकर जब तक उन वार्म परमाणुओं का अन्य प्रवृति रूप से मका होता या उसी दिन नही हसीन तक उनका आत्मा से लगे रहना । बंपादि के द्वारा स्व-स्वरूप को प्राप्त करने वाले कर्मों की स्थिति । सत्तास्थान----जिन प्रकृतियों की सत्ता एक साथ पाई जागे उनका समुदाय । सत्य मनोयोग-जिस मनोयोग के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का विचार किया जाता है । अथवा सद्भाव अर्थात् भगाचीन पदाधी को विषय करने वाले मन को सत्यमन और उसके दाग होने वाले योग को सत्य मनोयोग कहते हैं। सत्यमृषा मनोयोग · सत्य और पृषा ( असन्य) से मिश्रित मनोयोग । सत्यमृषा चचनयोग-रात्य और भूपा से मिश्रित बचनयोग । सत्य यननयोग . जिस बचानयोग के द्वारा दल्नु के यथार्थ स्वरूप का कणव तिया जाता है । सत्य वचन मगंणा के निमित्त से होने वाला योग । सदनुयोगद्वार- विवक्षित धर्म का मार्गणाओ में बतलाया जाना कि किग मार्गणाओं में वह धर्म है और विन मार्गणाओं में नहीं है। सद्भाव सत्ता--जिस कर्म की सत्ता अपने स्वरूप से हो। सपर्यवसित अत-- अन्तहीन श्रुत । समचतुरस्र- गालथी मारकर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोग मभान हों, यानी आमा और कपाल का अन्तर, दोनों घुटनों का अन्तर, दाहिने का और बायें जानु का अन्तर, मायं कंधे और दाहिने जानू गा अन्तर ममान हो। समुन्नतरत्र संस्थान नामकर्म- जिस कर्म के जदय से समुक्तस्त्र संस्थान की पादित हो अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अत्र व्यय शुम हों। समय---काल का अत्यन्त सूक्ष्म अविभागी अंश ।

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