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परिशिष्ट-२
साविसंस्थान नामकर्म-जिस पार्म के उदय से नामि से ऊपर के अवयव हीन
पतले और नामि से नीचे के अवयव पूर्ण मोटे हों। साधारण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवो का एक शरीर हो
अर्थात् अनन्त जीव एक शरीर के स्वामी बनें । सान्निपासिक भाव-दो या दो से अधिक मिले इए भाव । सान्तर स्थिति–प्रथम और द्वितीय स्थिति के बीच में कर्म दलिकों से शून्य
अपस्था । सामायिक-रागद्वेष के अभाव को सम भाव कहते हैं और जिस संयम से
समभाव की प्राप्ति हो अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र को सम कहते हैं और उनकी आय-लाभ प्राप्ति होने को समाय तथा समाय के भाव को अथवा
समाय को सामायिक कहा जाता है। सासादन सम्यक्त्व-उपशम सम्यक्त्व से व्युत होकर, मिथ्यात्व के अभिमुख
हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता है, तब तक के उसके
परिणाम विशेष को सांसादा सायरत्व कहते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि-जो औषशामिक सम्यष्टि जीव अनन्तानुबंधी कषाय के
उदय से सम्यवस्व से न्युत होकर मिथ्यात्व की ओर अभिमुख हो रहा है, किन्तु अभी मिथ्यात्य को प्राप्त नहीं हुआ, उतने समय के लिए वह
जीव रागादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है । सासादन गुणस्थान- सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के स्वरूप विशेष को कहते हैं। सिसवर्ण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर शंख जैसा सफेद हो । सिख पद-जिन ग्रन्थों के सब पद सर्वजोक्त अर्थ का अनुसरण करने बाले होने
से सुप्रतिष्ठित है उन ग्रन्थों को; अथथा जीवस्थान गुणस्थानों को सिद्ध
पद कहते हैं। सुभा नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का उपकार न
करने पर भी और किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पर भी सभी को
प्रिय लगता हो। सुरभिगंध नामकर्म---जिस कर्म के उदय से जीव के शारीर में कपूर, कस्तूरी
आदि पदार्थो जैसी सुगन्ध हो ।