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परिशिष्ट-२
पिकल प्रत्यक्ष चेतना शक्ति के अपूर्ण विकास के कारण जो ज्ञान भूर्त पदार्थों
की समग्र पर्यायों मावों को जानने में असमर्थ हो। वितस्ति-- दो पाद की एक वितस्ति होती है। विमय मिपाव- सम्यग्रहष्टि और मिथ्यादृष्टि दंब', गुरु और उनके कहे हुए
शास्त्रों में समान बुद्धि रखना। विपाक-कर्मप्रकृति की विष्टि अथवा विविध प्रकार के फल देने की शक्ति
को और फल देन के आभमुख होने का विपाक कहते हैं। विपाक-फाल - कर्म प्रकृलियों का अपने पान देने के अभिमुख होने का
समय । विपरोतमिथ्यात्व - धर्मादिक के स्वरूप वो विपरीत रूप मानना । विपुलमति मनःपर्यायज्ञान-चिन्तनीय वस्तु की पर्यायों को विविध विशेषताओं
सहित रफुटता से जानना। विभंगज्ञान--मिथ्यात्व के उदय से रूसी पदार्थों के विपरीत अवधिज्ञान को
विभंगज्ञान कहते हैं। विरति-हिंसादि सावध व्यापारों अर्थात् पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जाना । विश्व मानक भूमिसंपराग संयम-उपशमथेणि या क्षपदार्थ णि का आरोहण
करने वालों को दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय होने वाला संमम । विशेषाध-किसी खास गुणस्थान या किसी खास गति आदि को लेकर जो
बंध कहा जाता है उसे विशेषबंध कहते हैं ।। विसंयोजना-प्रकृति के क्षय होने पर भी पुनः बंध की सम्भावना बनी रहे। बिहामोगप्ति नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की चाल हाथी, बैल आदि
की चाल के समान शुभ या ऊँट, गधे की चाल के समान अशुभ होती है। बीर्यान्सरामकर्म-जिस कर्म के लक्ष्य से जीव शक्तिशाली और निरोग होते हुए
भी कार्य विशेष में पराक्रम न कर सके, शक्ति सामर्थ्य का उपयोग न
कर सके। पेव-जिसके द्वारा इन्द्रियजम्य, संयोगजन्य सुख का वेदन किया जाये । अथवा
मधुन सेवन करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं। अथवा वेद मोहनीयकम के लक्ष्य, उदीरणा से होने वाला जीव के परिणामों का सम्मोह (चंचलता) जिससे गुण-दोष का विवेक नहीं रहता।