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पारिभाषिक शब्दकोष
प्रमससंयत—जो जीव पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते
हैं, वे संयत (मुनि) हैं लेकिन संपत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते
हैं तब तक प्रमत्तसंयत कहलाले हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान---प्रमत्तसंयत के स्वरूप विशेष को कहते हैं । प्रमागांगुल-उत्सेधांगुल से अढाई गुणा विस्तार वाला और चारसौ गुण सम्बा
प्रमाणांगुल होता है । प्रमाव-आत्मविस्मरण होना, कुशल कर्मों में आदर न रखना, कर्तव्य-अमर्त्तव्य ___को स्मृति के लिए सावधान न रहना । प्रयुत-चौरासी लाख प्रयुतांग का एक प्रयुत होता है। प्रस्तांग-चौरासी लाख अयुत के समय को एक प्रयुतांग कहते हैं। प्राभत श्रुत-अनेक प्राभूत-प्राभूतों का एक प्राभूत होता है। उस एक प्राभूत
का ज्ञान । प्राभृत-प्रामृत श्रुत-दृष्टिवाद अंग में प्राभृत-प्राभृत नामक अधिकार हैं उनमें
से किसी एक का ज्ञान होना। प्राभृत-प्राभृतसमास श्रुत-यो चार प्रामृत-प्राभृतों का ज्ञान । प्रामृतसमास श्रुत-एक से अधिक प्राभूतों का ज्ञान ।
(ब) यष-मिथ्यात्व आदि कारणों द्वारा काजल से भरी हुई डिबिया के समान
पौगलिक द्रव्य से परिव्याप्त लोक में कर्मयोग्य पुद्गल अर्गणाओं का आत्मा के साथ नीर-सीर अथवा अग्नि और लोहपित्र की मोति एकदूसरे में अनुप्रवेश- अभेदात्मक एकक्षेत्रावगाह रूप संबंध होने को बंध कहते हैं । अथवा---आत्मा और कार्म परमाणुओं के संबंध विशेष को बंध कहते हैं। अपवा अभिनव नवीन कर्मों के ग्रहण को बंध
कहते हैं। बंधकास-परमव संबंधी आयु के बंधकाल की अवस्था । पंधविच्छेव---आगे के किसी भी गुणस्थान में उस कर्म का बंघ न होना । बंधस्थान –एक जीव के एक समय में जितनी कर्म प्रकृतिमों का बंध एक
साथ (युगपत्) हो उनका समुदाय । बंधहेतु-मिथ्यात्व आदि जिन वैमाविक परिणामों (कमोदय जन्य) आत्मा के