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परिशिष्ट-२
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माली-साढ़े अड़तीस लव के समय को नाली कहते हैं । निकाचन-उद्वर्तना, अपवतंना, संक्रमण और उदीरणा इन चार अवस्थाओं के
न होने की स्थिति का नाम निकाचन है । निकाधित प्रकृति--जिस प्रकृति में कोई भी करण नहीं लगता । उसे निकाषित
प्रकृति का है। मिरा-आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिले हुए कर्म पुद्गलों
__ का एकदेश क्षय होना। नि-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी नींद आये कि सुखपूर्वक जाग सके,
जगाने में मेहनत करनी पड़े। निशा-निजा-जिस कर्म के उदय से जीव को जगाना दुष्कर हो, ऐसी नींद आये । मिति- कर्म की उदीरणा और संक्रमण के सर्वथा अभाव की स्थिति । निर्माण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में अंग-प्रत्यंग अपनी-अपनी
जगह व्यवस्थित होते हैं । निरतिबार पोपस्थापनीय संयम--जिसको इस्वर सामायिक संयम वाले बड़ी
दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं। निवृत्तिबावर गुणस्थान--वह अवस्था, जिसमें अप्रमत्त आत्मा अनन्तानुबंधी,
अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन तीनों चतुष्क रूपी बादर कषाय से निवृत्त हो जाती है । इसमें स्थितिवात आदि का अपूर्व विधान
होने से इसे अपूर्वकरण गुणस्थान भी कहते हैं। निति प्रध्येद्रिप-इन्द्रियों की आकार-रचना । मिल्सकम भायु--जिस आयु का. अपवर्तन-घास नहीं होता। निश्मिमाम-परिहार विशुद्धि संयम को धारण करने वालों को कहते हैं । मिषिष्टकापिक-परिहारविशुदि संयम धारकों की सेवा करने वाले । निश्चय सम्पपरम-जीवादि तत्वों का पयाला से श्रद्धान। मिल-मानवश ज्ञानदाता गुरु का नाम छिपाना, अमुक विषय को जानते हुए
मी मैं नहीं जानता, उरसूत्र प्ररूपणा करना मावि लिलाव कहलाता है । मोच हुस-अधर्म और अनीति करने से जिस कुल ने चिरकाल से अप्रसिद्धि व
अपकीर्ति प्राप्त की है । मीच गोत्र कर्म-लिस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है।