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परिशिष्ट-२
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान जो अवधिज्ञान जन्म लेने से नहीं किन्तु जन्म लेने के बाद यम, नियम और व्रत आदि अनुष्ठान के बल से उत्पन्न होता हैं, उसको क्षायोपशमिक अवधिज्ञान भी कहते हैं ।
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गुणस्थान -जान आदि गुणों की शुद्धि और अशुद्धि के न्यूनाधिक भाव से होने वाले जीव के स्वरूप विशेष को कहते हैं ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि जीव के स्वभाव को गुण कहते हैं और उनके स्थान अर्थात् गुणों की शुद्धि-अशुद्धि के उत्कर्ष एवं अपकर्ष - जन्ध स्वरूप विशेष का भेद गुणस्थान कहलाता है ।
दर्शन मोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशंग, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित होते हैं, उन भागों को गुणस्थान कहते हैं ।
गणस्थान क्रम - आत्मिक गुणों के न्यूनाधिक क्रमिक विकास की अवस्था । गुणसंक्रमण - पहले की बँधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बंधने वाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत कर देना |
गुणभणी- जिन कर्म दलिकों का स्थितिघात किया जाता है उनको समय के क्रम से अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना गुणश्रेणी है । अथवा ऊपर की स्थिति में उदय क्षण से लेकर प्रति समय असंख्यात गुणे - असंख्यातगुणे कर्मदलिकों की रचना को गुणश्रेणी कहते हैं ।
गुणश्रणी निर्जरा-अल्प- अल्प समय में उत्तरोत्तर अधिक अधिक कर्म परमाणुओं
का क्षय करना ।
गुणहानि- प्रथम निषेक अवस्थिति हानि से जितना दूर जाकर आषा होता है उस अन्तराल को गुणहानि कहते हैं । अथवा अपनी-अपनी वर्गणा के वर्ग में अपनी-अपनी प्रथम वर्गणा के वर्ग से एक-एक अविभागी प्रतिच्छेद अनुक्रम से बंधता है ऐसे स्पर्धकों के समूह का नाम गुणहानि है । पुरुभक्ति - गुरुजनों (माता-पिता, धर्माचार्य, विद्यागुरु, ज्येष्ठ भाई-बहिन आदि की सेवा, आदर-सत्कार करना ।
गुरुलघु-आठ स्पर्ग वाले वादर रूपी द्रश्य को गुरुलघु कहा जाता है । गुरुस्पर्श नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे जैसा भारी हो । गत दो हजार धनुष का एक गव्यूत होता है ।