Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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(ब)
वंग-सयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती जीव के द्वारा पहले समय में
अपने वशरीर के बाल्य प्रमाण आत्म प्रदेशों को ऊपर से नीचे तक लोक पास रचने को दंड समुदघात कहते हैं ।
दर्शन सामान्य धर्म की अपेक्षा जो पदार्थ की सत्ता का प्रतिमास होता है, उसे
वम कहते हैं ।
पारिभाषिक शब्द-कोष
सामान्य विशेषाश्मक वस्तुस्वरूप में से वस्तु के सामान्य अंश के बोषरूप चेतना के व्यापार को दर्शन कहते है | अथवा सामान्य की मुस्ता पूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते है -- आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करने वाला कर्म । दर्शनीय सत्यार्थ श्रद्धा को दर्शन कहते हैं और उसको घात करने वाले, क्षावृत करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कर्म ।
यी प्रस्येक वस्तु में सामान्य और विशेष यह दो प्रकार के धर्म पाये जाते हैं, उनमें से सामान्य धर्म को ग्रहण करने वाले उपयोग को दर्शनोपोग कहते हैं ।
वानराव फर्म- बान की इच्छा होने पर भी जिस फर्म के उदय से जीव में - दान देने का उत्साह नहीं होता ।
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वालिको संज्ञा उस संज्ञा को कहते हैं, जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य काल संबंधी क्रमवद्ध ज्ञान होता है कि अमुक कार्य कर चुका हूँ, अमुक कार्य कर रहा है और अमुक कार्य करूँगा ।
दीपक सोनल क्रियाओं से होने वाले लाभों का समर्थन, प्रचार, प्रसार करना दीपक सभ्यमस्वलाता है ।
संग नामक - जिस कर्म के उपय से जीव उपकार करने पर भी सभी को अमिय लगता ही दूसरे जीव वात्रता एवं भाव रखें ।
शरीर में लहसुन अथवा सड़े
जिस कर्म के उदय से जीव के पदार्थों जैसी गंध हो ।
निवेश - यथार्थ वक्ता मिलने पर जो श्रद्धा का विपरीत बना रहना । मानक- जिस कर्म के उदय से व का स्वर व वचन श्रोता को समग्र व कर्कश अली ।