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परिशिष्ट-२
अगायुगामी अवविज्ञान- उत्पत्ति स्थान में यत होकार पार्य को जानने
वाला किन्तु उत्पत्ति स्थान को छोड़ देने पर न जानने वाला अवधिज्ञान । अनम्सानम्तागु वर्गगा- अनम्तानन्त प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा । अनन्साणु वर्गणा --अनन्त प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा । अभातानुबंधी कषाय- सम्ममत्व गुण का घात करके जीव को अनंत काल तक
संसार में परिभ्रमण कराने वाली उत्कट कषाय ।। अनपवर्सनीय आयु-जो आयु किसी भी कारण से कम न हो । जितने काल तक
के लिए बांधी गई हो, उतने काल तक भोगी जाये। अनभिगृहीत मिपास्व-परोपदेश निरपेक्ष-स्वभाव से होने वाला पदार्थों का
अयथार्थ असान। अमवस्थित अवषिशान-जो जल की तरंग के समान कभी बटता है, कभी बढ़ता
है, कभी आविर्भूत हो जाता है और कभी तिरोहित हो जाता है। अनवस्थित पाय--आगे-आगे बढ़ते जाने वाला होने से निमत स्वरूप के अभाव
पाला पल्य। अनाकारोपयोग-सामान्य विशेषात्मक वस्तु के सामान्य धर्म का अवबोध करने
वाले जीव का पतन्यानुविधायी परिणाम । अनादि-अनन्स-जिस बंध या उदय की परम्परा का प्रवाह अनादि काल से
निराबाध गति से चला आ रहा है, मध्य में न कमी विच्छिन्न हुआ है
और न आगे कमी होगा, ऐसे बंध या उदय को अनादि अनंत कहते है । अनादि बंध-जो बंध अनादि काल से सतस हो रहा है। अनादि भत—जिस श्रुत की आदि न हो, उसे अनादि श्रुत कहते हैं । अनादि-सान्त-जिस बंध या उदय की परम्परा का प्रबाह अनादिकाल से
निना व्यवधान के चला आ रहा है लेकिन आगे ज्युच्छिन्न हो जायेगा,
वह अनादि-सान्त है। अनावेय नामफर्म-जिस क्रम के उदय से जीव का युक्तियुक्त अच्छा वचन भी
अनादरणीय-अग्राह्य माना और समझा जाता है। अनभिहिक मिथ्यात्व-सत्यासत्य की परीक्षा किये बिना ही सब पक्षों को
घराबर समझना। अनाभोग मिथ्यात्व-अज्ञानजन्य अवस्व रुचि ।