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परिशिष्ट २
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रिक इन दो शरीरों के मिश्रत्व द्वारा होने वाले वीर्य-शक्ति के व्यापार को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं ।
आहारक योग्य उत्कृष्ट वर्गणा - आहारकयोग्य जधन्य वर्गणा से अनन्त भाम अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों की आहारक शरीर के ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वगंणा होती है ।
आहारकयोग्य जग्रम्य वर्गणा वैक्रिय शरीरयोग्य उत्कृष्ट वगंगा के मनम्बर की अग्रणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कल्पों की जो वर्गणा होती है, यह आहारकयोग्य जगन्य वर्गगा कहलाती है । आहारक वर्षणा - जिन वगंणाओं से आहारक शरीर बनता है । आहारकशरीर नामकर्म - चतुवंश पूर्वघर मुनि विशिष्ट कार्य हेतु, जैसे कि.मी विषय में सन्देह उत्पन्न हो जाये अथवा तीर्थंकर को ऋद्धि दर्शन की इच्छा हो जाये, आहारक वर्गणा द्वारा जो स्व-हस्त प्रमाण पुतला शरीर बनाते हैं, उसे आहारकशरीर कहते हैं और जिस कर्म के उदय से जीव को आहारकशरीर की प्राप्ति होती है व आहारक शरीर नामकर्म है। आहारकशरीरबंधन नामकर्म — जिस कर्म के उदय से पूर्वग्रहीत आहारक शरीर पुतलों के साथ गृह्यमाण आहारकशरीर पुलों का आपस में मेल हो ।
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आहारकसंघातन नामकर्म जिस कर्म के उदय से आहारकशरीर रूप परिणल मुगलों का परस्पर सानिध्य हो ।
आहारक समुद्घात – आहारकशरीर के निमित्त से होने वाला समुद्धास ।
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इश्वरसामायिक जो अभ्यासार्थी शिष्यों को स्थिरता प्राप्त करने के लिए पहले पहल दिया जाता है। इसकी कालमर्यादा उपस्थान पर्यन्त [ बड़ी बीमा लेने तक) छह मास तक मानी जाती है ।
इग्रिय- आवरणं कर्म का क्षयोपशम होने पर स्वयं पदार्थ का ज्ञान करने में असमर्थ — ज्ञस्वभाव रूप आत्मा को पदार्थ का ज्ञान कराने में निमित्तभूत कारण, अथवा जिसके द्वारा आत्मा जाना जाये अथवा अपने-अपने स्पर्शादिक विषयों में दूसरे को (रसना आदि को ) अपेक्षा न रखकर इन्द्र के समान जो समर्थ एवं स्वतन्त्र हों उन्हें इद्रिय कहते हैं ।
इन्द्रिय पर्याप्ति- जीव की वह शक्ति जिसके द्वारा धातु रूप में परिणत आहार