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परिशिष्ट-२
की अप्राप्ति हो और प्रतिकूल इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति के कारण दुखका
अनुभव हो । अस्थिर मामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाक-मी, जिल्हा आदि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल होते हैं।
(मा) भागाल-द्वितीय स्थिति के बलिकों को अपकर्षण द्वारा प्रथम स्पिति के दसिकों
में पाईवाना। भातप मामकर्म-लिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वयं उष्ण न होकर
मी उष्ण प्रकाश करता है। मादेय मामकर्म-जिस कर्म के उपय से जीव का वचन सर्वमान्य हो । मानुपूर्वी नामकर्म-इसके उदय से विप्रहगति में रहा हबा जीव भाकाश प्रदेशों
की श्रेणी के अनुसार गमन कर उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचता है। आभिपहिक मिष्यारण तत्व की परीक्षा किये बिना ही किसी एक सिद्धांत का
पक्षपात करके अन्य पक्ष का स्नान करना। माभिनिवेशिक मिन्यात्व-अपने पक्ष को असत्य जानकर भी उसकी स्थापना
करने के लिये दुरभिनिवेश (पुराग्रह) करना । भाभ्यन्तर निवृत्ति--इन्द्रियों का आंतरिक-भीतरी आकार । आरमांगुल-प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना भंगुल । इसके द्वारा अपने पारीर की
ऊँचाई नापी जाती है। मापु-कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव-देव, मनुष्य, तिथंच और नारक के म
में जीता है और उसके क्षय होने पर उन-उन रूपों का त्याग करता
है, यानी मर जाता है। माविल-जिसमें निगय-दूष, पी आदि रस छोड़बार केवल दिन में एक बार
अन्न वाया जाता है तथा गरम (प्रासुक) जम पिया जाता है। मावली-असंस्थात सषय की एक प्रावली होती है। मावश्यक बत--गुणों के द्वारा आत्मा को वश में करना आवश्यकीय है, ऐसा
वर्णन जिसमें हो उसे आवश्यक श्रुत कहते हैं । आपातमा-शानियों की मिया करमा, उनके बारे में सूठी बातें कहना, ममी