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परिशिष्ट-२
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भवक्तव्य बंष-वैष के अमाव के बाद पुनः कर्म बंघ अषवा सामान्यपने से
मंग विवक्षा को किये बिना अवक्तव्य बंध है। अवप्रह-नाम, पाति आदि की विशेष कल्पना से रहित सामाग्य सत्ता मात्र का
ज्ञान । भवभिमाम-मिथ्याख के उदय से लपी पदार्थों का विपरीत अवषिमान ।
इसका दूसरा नाम विमंगझान भी है। अवधिमाल-इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा न कर साक्षात् आत्मा
के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव की मर्यादापूर्वक रूपी अर्थात मूल द्रव्य का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। अथवा जो शान अधोतघोविस्तृत बस्तु के स्वरूप को जानने की शक्ति रखता है अथवा जिस ज्ञान में सिर्फ रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति हो अथवा बाह्य अर्थ को साक्षात्
करने के लिये जो आत्मा का व्यापार होता है, उसे अवविज्ञान कहते हैं। अवधिमानावरण कर्म-अभिज्ञान का आवरण करने वाला कर्म । अवषिर्शन-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही आत्मा को रूपी
द्रव्यों के सामान्य धर्म का प्रतिमास । अवप्रियर्शनावरण कर्म--अवषिदर्शन को आवृत्त करने वाला कर्म । अवक-चौरासी लाख अथवांग के काल को एक अवय कहते हैं । भवांग-पौरासी लाख असर का एक अवयोग होता है। अवस्थित अवषिशान--ओ अवधिज्ञान जन्माम्सर होने पर भी आत्मा में
अवस्थित रहता है अथवा फेवलज्ञान की उत्पत्ति पर्यन्त या आजम्म
ठहरता है। अवस्थित बंध-पहले समय में जितने कर्मों का बंध किया, दूसरे समय में भी
उतने ही कर्मों का बंध करमा । मवलपिनी काल-वस कोटाकोरी सूक्ष्म अशासागरोपम के समय को एक अब
सपिणी काल कहते हैं। इस समय में जीवों की शक्ति, सुख, अवगाहना
आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता जाता है। अवाय-ईहा के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के विषय में कुछ अधिक निश्चया
स्मक ज्ञान होना । अविपाक मिर्जरा- उदयावली के बाहर स्थित कर्म को तप आदि क्रियाविशेष
की सामयं से उदयावली में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाना ।