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परिशिष्ट-२
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सात प्रकृतियों के उपशम से जो तत्व रुचि व्यंजक आरम-परिणाम प्रगट होता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व है।
कटुरस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस घिरायते, नीम
आदि जैसा टु हो। कमल-चौरासी लाख कमलांग के काल को कहते हैं । कमलांग-चौरासी लान महापान का एक कमलांग होता है । करण-पर्याप्त-ले जीष जिन्होंने इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर ली है अथवा अपनी
योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं। करण-अपर्याप्त--पर्याप्त या अपर्याप्त नामकर्म का उदय होने पर मी जब तक
करणों-शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों की पूर्णता न हो तब तक वे जीव
करण-अपर्याप्त कहलाते हैं। करणलक्षि-अनादिकालीन मिथ्यात्व-प्रन्थि को भेदने में समर्थ परिणामों या
शक्ति का प्राप्त होना। कवलाहार-अन्न आदि खाद्य पदार्थ जो मुख द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। कर्म-मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से हुई जीव की
प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट एवं सम्बद्ध तत्योग्य पुदगल परमाणु । कर्मजा धुद्धि-उपयोगपूर्वक चिन्तन, मनन और अभ्यास करते-करते प्राप्त
होने वाली बुद्धि । कर्मयोग्य उस्कृष्ट वर्गणा--कर्मयोग्य जघन्य वर्गणाओं के अनन्तवें भाग अधिक
प्रदेश वाले स्कन्धों को कर्म ग्रहण के योग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। कर्मयोग्य जघन्य वर्गणा-उत्कृष्ट मनोयोग्य बर्गणा के अनन्तर की अग्रहण योग्य
उत्कृष्ट वर्गणा के स्कन्ध के प्रदेशों से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों को वर्गणः
कर्मग्रहण के योग्य जघन्य वर्गणा होती है । कर्मरूप परिणमन--फर्म पुद्गलों में जीब के ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाविक गुणों
को आवरण करने की शक्ति का हो जाना । कर्मस्पतावस्थानलक्षणा स्थिति बंधने के बाद जब तक फर्भ आत्मा के साथ
ठहरता है, उतना काल । फर्मवगणा-कर्म कम्पों का समूह ।