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परिशिष्ट-२
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रिक आदि सास प्रकार के कामों में जो भावय रूप से रहता है, उसे सामान्यत: काय कहते हैं और उस काय से उत्पन्न हुए आत्म-प्रदेश परि
स्पन्द लक्षण वीर्य (पाक्ति) के द्वारा जो योग होता है. यह काययोग है। कारक सम्पवस्व--जिनोक्त क्रियाओं-सामायिक, अति-श्रवण, गुरु-चंदन आदि
को करना । कामगार-कमों के समूह अथवा कार्मणशरीर मामकर्म के उदय से उत्पन्न
होने वाले काय को कार्मणकाय कहते है। नामयोगका के शाहले नाग योग अर्थात् अन्य
मौदारिक आदि शरीर वर्गणाओं के बिना सिर्फ कम से उत्पन्न हए वीर्य (शक्ति) के निमित्त से आत्म-प्रदेश-परिस्पन्दन रूप प्रयत्न होना कार्मणकाययोग कहलाता है। कार्मणशरीर की सहायता से होने वाली बास्म
शाक्ति की प्रवृत्ति को कार्मणकाययोग कहते हैं । कार्मणशरीर-शानावरण आदि कमो से बना हुआ शरीर । कार्मणशरीर नामकर्म—जिस कर्म के उदय से जीव को कार्मण-पारीर की
प्राप्ति हो । कार्मणकामणवंधम नामकर्म--जिस कर्म के उदय से कार्मणशरीर पुद्गलों
का कार्मणशारीर पुरुगलों के साथ सम्बन्ध हो। कार्मणशारीरबंधम मामकर्म-जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत कार्मणशरीर
युगलों के साथ समाज काशशरीर पुनसों का आपस में मेल। कार्मणसंघातम नामकर्म--जिस कर्म के उदय से कार्मणवीर रूप में परिणत
पुद्गलों का परस्पर सानिध्य हो। काल-अनुयोग हर-जिसमें विवक्षित धर्म वाले जीवों को जघन्य व उस्कृष्ट
स्थिति का विचार किया जाता है। कोलिकासंगमम नामकर्म-जिस कर्म के उदय से एडियों की रचना में मर्कट
बंष और बेठन न हो किन्तु कोली से हटियां जुड़ी हुई हों। जसंस्थान नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर कुबड़ा हो । हुमुप--चौरासी लाल कुमुवांग के काल को कुमुद कहते है। कुसुबांग-चौरासी लाख महाकमल का एक कुमुदाग होता है। कुशल कर्म----जिसका विपाक इष्ट होता है।