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परिशिष्ट-२
अपर्याप्त मामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण न करे । अपरावर्तमान प्रकृति--किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों के बिना
जिस प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों होते हैं। अपवर्तना-बड कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसाय विशेष से कमी
कर देना। अपवर्तनाकरण---जिस धीर्य विशेष से पहले बंधे हुए कम की स्थिति तथा रस
घट जाते हैं, उसे अपवर्तनाकरण कहते हैं । अपवर्तनीय वायु-चाप निमित्त से जो आयु कम हो जाती है उसे अपवर्तनीय
(अपवयं ) कहते हैं। इस आयुच्छेद को अकालमरण भी कहा जाता है । अपुण्यकर्म-ओ दुःख का वेदन कराता है. उसे अपुण्यकर्म कहते हैं । अपूर्वकरण---वह परिणाम जिसके द्वारा जीव राग-नेष की दुर्भधसन्धि को तोड़
कर सांप जाता है। अपूर्वस्मितिबंध-पहले की अपेक्षा अत्यन्त अस्प स्थिति के को को बाधना । अप्रतिपाती —िजिसका स्वमात्र पतनशील नहीं है। अप्रत्यारपानावरण कषाय-जिस कषाय के उदय से देशविरति-आंशिक त्याग __ रूप अल्प प्रत्यास्यान न हो सके। जो कषाय आत्मा के देशविरत गुण
(थावकाचार) का घात करे । अप्रमत्तसंघत गुणस्थान-जो संयत (मुनि) विकथा, कषाय आदि प्रमादों का सेतन
नहीं करते हैं वे अप्रमत्तसंयत हैं और उनके स्वरूप विशेष को अप्रमत्त
संयत गुणस्थान वाहते है। अप्राप्यकारी--पदार्थों के साथ बिना संयोग किये ही पदार्थ का ज्ञान करना। अबंष प्रकृति-विवक्षित गुणस्थान में वह कर्म प्रवृति न बने किन्तु आगे के
स्थान में उस कर्म का बंध हो, उसे अबंध प्रकृति कहते हैं । अबंधकाल-पर-भव सम्बन्धी आयुकर्म के बंधकाल से पहले की अवस्था । अमाधाकाल-बधे हुए कर्म का जितने समय तक आत्मा को शुभाशुभ फल का
वेदन नहीं होता। अभिगृहीत मिथ्यात्व-कारणवश, एकान्तिम कदाग्रह से होने वाले पदार्थ के ___ अपघार्थ श्रवान को कहते हैं । अभिनय कर्मग्रहण--जिस आकाश क्षेत्र में आत्मा के प्रदेश हैं उसी क्षेत्र में अव