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परिशिष्ट-२
उत्तर प्रकृति-कर्मों के मुख्य भेदों के अवान्तर भेद ।। उस्पाल-ौरासी लाख उत्पलांग का एका अल्पल होता है। उत्पलांग---चौरासी लाख 'हु हु के समय को एक उत्पाग कहते हैं । उतश्लक्ष्ण-श्लगिका यह अनन्त व्यवहार परमाणु की होती है । उत्सपिगी काल----इस कोटा-कोटी सूक्ष्म अढा सागरोपम का काल । इसमें
जीवों की शक्ति, बुद्धि, अवगाहना आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । उसेष गुल--आठ यव मध्य का एक उत्सेषागुल होता है। उवय-वैधे हुए कर्म दलिकों की स्वफल प्रदान करने की अवस्था अथवा काम
प्राप्त कर्म परमाणुओं के अनुभव करने को उदय कहते हैं । उत्यकालग-अबाषा काल व्यतीत हो चुकने पर जिस समय कर्म के फल का
अनुभव होता है, उस समय को उदयकाल कहते हैं । अथवा कर्म के फल
नोग के नियस कास्त्र को उपयकाल कहा जाता है। उदयविकल्प--उदयस्थानों के अंगों को उपयविकल्प कहते हैं। सयपान-जिन प्रकृतियों का उपम एक साथ पाया जामे; उनके समुदाय को
उपयस्थान कहते हैं। वारणा-उवयफाल को प्राप्त नहीं हुए कर्मों का आत्मा के अध्यवसाय-विशेष
-~प्रयत्न-विशेष से नियत समय से पूर्व उदयहेतु उदयायलि में प्रविष्ट करना, अवस्थित करना या नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में माना
अथवा अनुषयकाल को प्राप्त कर्मों को फलोदय की स्थिति में ला देना। ग्वीरगा स्थान-जिन प्रफुत्तियों की उदीरणा एक साथ पाई जाये उनके समु
वाय को उदीरणास्थान कहते हैं । चहार पाल्प- व्यवहार पल्य के एक-एक रोमखंर के कल्पना के द्वारा असंख्यात
कोटि वर्ष के समय जितने खंड करके उन सब खंगों को पल्य में मरना
उदार पल्प कहलाता है। उग्रोत नामकर्म-जिस कर्म के उदय से श्रीव का पारीर शीत प्रकाश फैलाता है। सवमना- कर्मों की स्थिति और अनुभाग में स्थितिविशेष, भावविाष
और अध्यबसायविशेष के कारण वृद्धि हो पाना । उपयसन-पपाप्रवृत्त मादि तीन करणों के बिना ही किसी प्रकृति को अन्य
प्रति रूप परिणमाना।