Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पारिभाषिक शब्द कोष
स्थित कर्म रूप में परिणत होने की योग्यता रखने वाले पुद्गल स्कन्धों कीपणाओं को कर्म रूप में परिणत कर जीव द्वारा उनका ग्रहण होना कर्म ग्रहण है ।
अमष्य के जीव जो अनादि तथाविध पारिणामिक भाव के कारण किसी भी समय मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता ही नहीं रखते ।
अम्लरस मम कर्म — जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर रस नींबू, इमली आदि खट्टे पदार्थों जैसा हो ।
मयुत-चौरासी लाख अयुतांग का एक अयुत होता है ।
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भयुलॉग- चौरासी लाख अर्थेनिपूर के समय को एक अयुतांग कहते हैं । अयोगिकेवली - जो केवली भगवान योगों से रहित हैं, अर्थात् जब सयोगिकेवली मन, वचन और काया के योगों का मिरोध कर, कर्म-रहित होकर शुद्ध भारमस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे अयोगिकेवली कहलाते हैं । अगिवली यात संयम अयोगिकेवली का संयम ।
जिसमें वश और
अयशः फोनिज अपकीति फैले ।
अध्यवसाय — स्थितिबंध के कारण भूत कषायजम्य आत्म-परिणाम |
अध्यवसाय स्थान कषाय के तीव्र तीव्रतर तीव्रतम तथा मन्द मन्दतर और
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मन्सम उदय-विशेष |
मिनी – जिस कर्म के उदय से कारणवश मा बिना कारण के पदार्थों
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से प्रीति द्वेष हो ।
अर्थनिर चौरासी लाख अर्थनियूरांग का एक अर्धनिपूर होता है । भर्वत्र रंग- चौरासी लाख नलिन के समय को अर्थनिपुरांग कहा जाता है । अमिन – विषय और इन्द्रियों का संयोग पुष्ट हो जाने पर 'यह कुछ हैं' ऐसा सो विषय का सामान्य बोष होता है उसे अर्थावग्रह कहते हैं अपचा पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थाविग्रह कहते हैं ।
मर्थनाररसंहनन गमकर्म जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में एक
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और मर्कट अंध और दूसरी ओर कीली हो ।
अनतर बंध---अधिक कर्म प्रकृतियों का बंध करके कम प्रकृतियों के बंध करने
अरूप
को अल्पसर बंध कहते हैं ।
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- पदार्थों का परस्पर न्यूनाधिक अरुपाधिक माय ।